इमाम-ए-ज़माना (अ.ज.) की मारेफ़त नहीं तो कोई क़द्र व क़ीमत नहीं


✍🏻 मौलाना सैयद अली हाशिम आब्दी

अमीरुल मोमिनीन हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया:
“हर इंसान की क़द्र व क़ीमत उसकी मारेफ़त (पहचान) के हिसाब से है।” (मआनी अल-अख़बार 1/2)

यानी इंसान की असली पहचान और इज़्ज़त इस बात से है कि वो क्या और किसको पहचानता है। अगर पहचान (मारेफ़त) सही है तो इंसान की ज़िंदगी भी कीमती है और उसकी मौत भी। लेकिन अगर पहचान ही नहीं, तो फिर उसकी न कोई अहमियत है और न क़द्र।

मारेफ़त है क्या?

मारेफ़त का आसान मतलब है पहचानना, जानना और मानना।
सिर्फ़ नाम जान लेना मारेफ़त नहीं, बल्कि किसी की हक़ीक़त को समझना, दिल से मानना और उसके बताए हुए रास्ते पर चलना ही मारेफ़त है।

इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया:
“अल्लाह ने बंदों को सिर्फ़ इसलिए पैदा किया है कि वो उसकी मारेफ़त हासिल करें। जब लोग उसे पहचान लेंगे तो उसकी इबादत करेंगे और जब उसकी इबादत करेंगे तो ग़ैर-ख़ुदा से बेनियाज़ हो जाएंगे।”

सवाल किया गया: “मौला! अल्लाह की मारेफ़त क्या है?”
तो इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया:
“हर दौर में अल्लाह की मारेफ़त, उस दौर के इमाम की पहचान है जिसकी इताअत लोगों पर लाज़िम है।” (इललुश-शरायअ)

यानी अगर किसी ने अपने दौर के इमाम को नहीं पहचाना तो उसने अल्लाह को भी नहीं पहचाना।

ग़ैबत के दौर की ज़िम्मेदारी

आज हम ग़ैबत-ए-कुबरा के दौर में हैं, यानी हमारे दौर के इमाम हज़रत इमाम-ए-ज़माना (अज.) पर्दे में हैं। ऐसे वक़्त में सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी यही है कि हम उनकी मारेफ़त हासिल करें।

रसूलुल्लाह (स.अ.व.व.) ने फ़रमाया:
“जो अपने दौर के इमाम को न पहचाने, उसकी मौत जाहिलियत की मौत है।”

सोचिए! अगर कोई इंसान पूरी ज़िंदगी इबादत करता रहे लेकिन इमाम-ए-वक़्त को न पहचाने, तो उसकी मौत जाहिलियत की मौत मानी जाएगी। ऐसे इंसान के लिए आख़िरत में न फ़ायदा है और न इनाम।

इमाम जाफ़र सादिक़ (अ.स.) ने भी फ़रमाया:
“जिसने क़ायम (अज.) का उनकी ग़ैबत के वक़्त में इंकार किया, उसने जाहिलियत की मौत पाई।” (सदूक़, ज2, स412)

मारेफ़त क्यों ज़रूरी है?

  • मारेफ़त के बिना अल्लाह की पहचान अधूरी है।
  • मारेफ़त के बिना रसूलुल्लाह (स.अ.व.व.) की पहचान अधूरी है।
  • मारेफ़त के बिना इबादत का मक़सद अधूरा है।
  • और आख़िरत में घाटा ही घाटा है।

रसूलुल्लाह (स.अ.व.व.) ने इमाम-ए-ज़माना (अज.) के बारे में फ़रमाया:
“जिसने उनकी इताअत की, उसने मेरी इताअत की। जिसने उनकी नाफ़रमानी की, उसने मेरी नाफ़रमानी की। जिसने उनकी ग़ैबत का इंकार किया उसने मेरा इंकार किया, और जिसने उनकी तस्दीक़ की उसने मेरी तस्दीक़ की।” (कमालुद्दीन, ज2, स411)

मारेफ़त कैसे हासिल करें?

  1. यक़ीन रखें कि इमाम-ए-ज़माना (अज.) अल्लाह की तरफ़ से हमारे दौर के इमाम हैं।
  2. उनके गुण और सिफ़ात जानें – वो इंसाफ़ लाने वाले हैं और ज़ुल्म से भरी दुनिया को इंसाफ़ से भर देंगे।
  3. उनकी इताअत करें – यानी कुरआन और अहलेबैत (अ.स.) की हिदायत पर चलें।
  4. उनका इंतज़ार करें – इंतज़ार का मतलब है खुद को इस तरह तैयार करना कि जब वो आएं तो हम उनके सच्चे मददगार साबित हों


आज की सबसे बड़ी ज़रूरत यही है कि हम सब इमाम-ए-ज़माना (अज.) की मारेफ़त हासिल करें।

  • अपने बच्चों और नौजवानों को उनकी पहचान सिखाएँ।
  • अपने घरों को उनके इंतज़ार की खुशबू से महकाएँ।
  • और दुआ करें कि अल्लाह हमें उनके सच्चे शियाओं और मददगारों में शामिल करे।

क्योंकि सच्चाई यही है:
👉 “इमाम-ए-ज़माना (अ.ज.) की मारेफ़त नहीं तो कोई क़द्र व क़ीमत नहीं।”


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