28 सफ़र: इंसानियत के नबी की और दूसरे शहीद इमाम हसन की याद में- एक दिल को झकझोर देने वाली दास्तान


Nida Tv-निदा टीवी डेस्क 

पैग़म्बरे इस्लाम का स्वर्गवास – दुनिया में दया और रहमत का अंतहीन खज़ाना

28 सफ़र का दिन इस्लामी इतिहास का सबसे ग़मगीन और काला दिन है। इसी दिन रहमतुल्लिल आलमीन, पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा ﷺ इस नश्वर संसार से पर्दा कर गए। उनका जाना केवल मुसलमानों के लिए नहीं बल्कि पूरी इंसानियत के लिए एक बहुत बड़ा सदमा था।

अरब की अंधेरी धरती पर जब जहालत और अंधविश्वास का राज था, तब पैग़म्बर ﷺ ने ईश्वर का सन्देश देकर ज्ञान, इंसाफ़ और इंसानियत की रोशनी फैलाई।
उन्होंने कहा:
“मुझे नेक आचरण और ऊँचे अख़लाक़ को पूर्ण करने के लिए भेजा गया है।”

आपके जीवन का हर लम्हा दया, क्षमा, भाईचारा और समानता का पैग़ाम देता है। आपने न केवल मुसलमानों बल्कि अन्य धर्मों के अनुयायियों तक भी करुणा और इंसाफ़ का संदेश पहुँचाया।

आपका अंतिम संदेश था कि –

  • एकेश्वरवाद ही इंसानियत की नींव है।
  • जातिवाद और नस्लभेद की कोई जगह नहीं।
  • इंसान की श्रेष्ठता का पैमाना सिर्फ़ तक़वा है।
  • मुसलमान एक शरीर के अंगों की तरह हैं, जिनमें से एक अंग को तकलीफ़ हो तो बाक़ी अंग भी दर्द महसूस करें।

यही कारण है कि पैग़म्बर ﷺ का जाना पूरी उम्मत के लिए ऐसा था मानो संसार का सबसे बड़ा सहारा छिन गया हो।

इमाम हसन अलैहिस्सलाम – पैग़म्बर के नवासे और इंसानियत के सच्चे वारिस

पैग़म्बर ﷺ के बड़े नवासे, इमाम हसन अलैहिस्सलाम, जिनका चेहरा, चाल-ढाल और व्यवहार बिल्कुल अपने नाना जैसा था, इंसानियत और करुणा का जीता-जागता नमूना थे।

आपका बचपन पैग़म्बर ﷺ की गोद में बीता। पैग़म्बर ﷺ आपसे बेहद मोहब्बत करते थे और अक्सर कहते थे:
“हसन और हुसैन, जन्नत के नौजवानों के सरदार हैं।”

इमाम हसन अलैहिस्सलाम को करीमे अहलुल बैत (दान और करुणा के सरताज) कहा जाता है, क्योंकि आपने अपनी ज़िंदगी का बड़ा हिस्सा इंसानियत की सेवा और ग़रीबों की मदद में बिताया।

सत्ता से ज़्यादा इस्लाम की हिफ़ाज़त – इमाम हसन का महान निर्णय

अपने पिता इमाम अली अलैहिस्सलाम की शहादत के बाद जब आप मुसलमानों के रहनुमा बने, उस समय इस्लामी समाज बेहद नाज़ुक हालत में था।

सीरिया का शासक मुआविया हर हाल में इमाम हसन की हुकूमत गिराना चाहता था। उसने युद्ध की तैयारी की, लेकिन इमाम हसन ने हालात का गहराई से जायज़ा लिया और महसूस किया कि इस्लाम की जड़ों पर चोट पहुँचाने वाली लड़ाई से मुसलमान बर्बाद हो सकते हैं।

इसीलिए आपने शांति-संधि को स्वीकार किया और कहा:
“मैंने लड़ाई इसलिए नहीं रोकी कि मुझे सत्ता की चाहत नहीं है, बल्कि इसलिए कि मैं इस्लाम की रक्षा करना चाहता हूँ।”

यह फैसला इतिहास में हमेशा याद रखा जाएगा कि इमाम हसन ने साबित कर दिया कि इस्लामी रहनुमाई का मक़सद सत्ता नहीं बल्कि इस्लाम की हिफ़ाज़त है।

ज़हर का प्याला और शहादत का ग़म

मुआविया ने जब देखा कि इमाम हसन का अस्तित्व ही उसके नापाक मक़सद की राह में सबसे बड़ी दीवार है, तो उसने एक साज़िश रची।
उसने इमाम हसन को ज़हर दिलवाया। कई दिनों की पीड़ा के बाद, 28 सफ़र सन 50 हिजरी में, पैग़म्बर ﷺ का यह प्यारा नवासा शहादत के दर्जे पर फ़ायज़ हुआ।

इतिहास गवाह है कि इमाम हसन ने अपनी आख़िरी साँस तक इस्लाम की हिफ़ाज़त की और अपने नाना की शिक्षा को ज़िंदा रखा।

28 सफ़र – ग़म, सब्र और इत्तेहाद का दिन

आज 28 सफ़र पूरी उम्मत के लिए ग़म का दिन है। यह दिन याद दिलाता है कि –

  • इस्लाम की नींव रहमत, इंसाफ़ और भाईचारे पर रखी गई है।
  • पैग़म्बर ﷺ और अहलुल बैत ने हमेशा इंसानियत की भलाई के लिए क़ुर्बानियाँ दीं।
  • सत्ता से बढ़कर धर्म और इंसानियत की हिफ़ाज़त ज़रूरी है।

28 सफ़र हमें यह सिखाता है कि हम अपने जीवन में पैग़म्बर ﷺ और इमाम हसन अलैहिस्सलाम के आदर्शों को अपनाएँ – मोहब्बत, इंसाफ़, दान, सब्र और एकता

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