सैयद रिज़वान हैदर साहब, पूर्व डिप्टी एसपी, एक सच्चे मुहाफ़िज़, एक खामोश मगर साहसी सिपाही — आज इस फानी दुनिया को छोड़कर अपने रब से मिलने चल दिए। उनकी नमाज़े जनाज़ा आज मगरिब के बाद अदा की जाएगी और उन्हें उनके वतन अमरोहा में सुपुर्द-ए-ख़ाक किया जाएगा। उनका गुस्ल जामा मस्जिद के पास उसी जगह हुआ, जहाँ उन्होंने वर्षों तक अपने जज़्बे और मोहब्बत से इस मस्जिद की रूह को बचाया।
वो सिर्फ अफसर नहीं थे, वो लखनऊ की तहज़ीब के फकीर थे।
वो इमारतों से मोहब्बत नहीं करते थे, बल्कि तहज़ीब के उस जज़्बे से इश्क रखते थे जो इन इमारतों में सांस लेता है।
उन्होंने अंग्रेज़ी दौर में ढहाए गए जामा मस्जिद के ऐतिहासिक दरवाज़े को फिर से खड़ा करने का ख्वाब देखा — और हकीकत बना दिया। उन्होंने कभी किसी पुरस्कार की ख्वाहिश नहीं की, मगर उनके नाम से लखनऊ की धड़कनों में एक इज़्ज़त की गूंज हमेशा मौजूद रही।
आज सुबह ही, अंबर फाउंडेशन के चेयरमैन वफ़ा अब्बास साहब ने रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह से मुलाक़ात कर सैयद रिज़वान हैदर साहब को पद्म सम्मान से नवाज़ने की अपील की थी। उनका कहना था:
“ये नाम किसी तमगे का मोहताज नहीं, मगर अगर कोई तमगा तहज़ीब की हिफाज़त के लिए हो, तो पहला हक़ रिज़वान हैदर साहब का है। वो चुपचाप दर-ओ-दीवार की धूल में वो चमक तलाशते थे जिसे दुनिया भूल चुकी थी।"
उनके जाने से लखनऊ सिर्फ एक शख्स नहीं, एक तहज़ीबी सदी से महरूम हो गया है।
वो जो कहते नहीं थे, मगर हर इमारत उनकी ज़ुबान बन चुकी थी।
वो जो कभी सुर्ख़ियों में नहीं आए, मगर आज हर दिल में सुर्ख हैं।
लखनऊ अब उन्हें नहीं देख पाएगा, मगर महसूस ज़रूर करता रहेगा।
उनकी आवाज़ अब किसी दरवाज़े की चरमराहट में, किसी ईंट की दरक में, और किसी खंडहर की तन्हाई में गूंजेगी।
अलविदा सैयद रिज़वान हैदर साहब, आप वक़्त के उस सफ़र पर रवाना हो चुके हैं जहाँ से कोई लौटता नहीं... मगर आपकी मोहब्बत, आपकी जद्दोजहद, और आपकी वफ़ादारी इस शहर की फिज़ाओं में हमेशा ज़िंदा रहेगी।
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