पैग़ाम-ए-सुबह: रहमत, सब्र और यक़ीन का नूर


हर सुबह जब सूरज अपनी किरनों से ज़मीन को रौशन करता है, तो यूं लगता है जैसे अल्लाह तआला अपने बन्दों को एक नयी उम्मीद, नयी रहमत और नये हौंसले का पैग़ाम दे रहा हो। हर तलूअ होता सूरज यही बताता है कि अल्लाह की रहमत कभी खत्म नहीं होती – चाहे अंधेरी रात कितनी ही लंबी क्यों न हो, रौशनी का आना यक़ीनी है।

ज़िन्दगी के सफर में हर किसी को ऐसे लम्हात का सामना करना पड़ता है जब दुआएँ क़ुबूल होने में देर होती है। इंसान बेचैन होता है, सवाल करता है, मायूस भी हो जाता है। लेकिन रब्बुल आलमीन जानता है कि कब, क्या और कैसे देना है। वह सिर्फ हमारे अल्फ़ाज़ नहीं, हमारी नीयत और सब्र को देखता है।

जब इंसान टूटने लगे, जब वह थककर हार मानने लगे, तो वही रब्ब-ए-करीम अपनी रहमत से एक लम्हे में सबकुछ बदल सकता है – "कुन फयकून" (हो जा, और वह हो जाता है)।

असल कामयाबी दौलत, शोहरत या दुनिया की भीड़ में नहीं, बल्कि उस सब्र में है जो रब पर यक़ीन से भरा होता है।
सुकून मिलता है जब दिल ज़िक्र में डूबा हो, और हक़ीकी ख़ुशी तब हासिल होती है जब इंसान अल्लाह की रज़ा में रज़ामंद हो जाए।

दुनिया की असल नेमतें वही हैं जो दिल को चैन दें, जो आख़िरत में काम आएं। और यह तब ही मुमकिन है जब इंसान का रिश्ता रब से मजबूत हो – जब लबों पर ज़िक्र-ए-इलाही, दिल में ईमान का नूर, और अमल में भरोसा और इख़लास हो।

दुआ है कि अल्लाह तआला हमें उन ख़ास बन्दों में शामिल करे
जो हर हाल में उस पर भरोसा रखते हैं,
जो सब्र को अपनी ताक़त बनाते हैं,
और जो हर सुबह को एक नई रहमत का ज़रिया समझते हैं।

आमीन या रब्बल आलमीन

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