"आँसू से तमाशे तक — शहीदाने करबला की याद को कौन बदल रहा है?"बदलते मातमी अंदाज़ और क़ौम का इम्तेहान"


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*एक वक्त था जब ऐसी अंजुमने प्रोग्राम  में बुलाई जाती थी जो पुर दर्द नव्हां पढ़कर शहीदाने करबला की याद में आंखों में आंसू बहाने और आजादारी को परवान चढ़ा कर हक के साथ इंसानियत के लिए दिल को मजबूत करती थी।*

कर्बला का मैदान इंसानियत के लिए सिर्फ़ एक तारीखी वाक़े का नाम नहीं है, बल्कि यह एक ऐसा पैग़ाम है जो हर दौर के इंसान को हक़ और बातिल के बीच फ़र्क सिखाता है। हज़रत इमाम हुसैन (अ) और उनके वफ़ादार साथियों ने अपने ख़ून से यह सबक़ दिया कि हक़ की हिफाज़त के लिए क़ुर्बानी देना ज़रूरी है, चाहे ज़ालिम कितना ही ताक़तवर क्यों न हो।

यही वजह है कि सदी दर सदी, मुल्क दर मुल्क, इमाम हुसैन (अ) का ग़म मनाया जाता है — इराक़ की गलियों से लेकर ईरान की मस्जिदो दरगाहों तक, भारत और पाकिस्तान के इमामबाड़ों से लेकर लेबनान, सीरिया, अफ़्रीका एशिया और यूरोप-अमेरिका कनाडा तक। हर जगह आज़ादारी की महफ़िलें सजती हैं, आँसू बहाए जाते हैं, और मातमी सीनों की आवाज़ गूँजती है।

*लेकिन अफ़सोस, आज हम एक ख़तरनाक मोड़ पर खड़े हैं।*

*इमाम-ए-वक़्त (अ.फ.) के आँसू — हमारी आँखें खोलने के लिए*

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रिवायतों में आता है कि हमारे मौला, इमाम-ए-ज़माना हज़रत इमाम महदी (अ.ज.) अपने जद इमाम हुसैन (अ) की शहादत पर खून के आँसू बहाते हैं।

सोचिए! वो मासूम, जो इंसानियत के आख़िरी रहनुमा हैं, जब अपनी आँखों से खून बहाते हैं, तो यह सिर्फ़ ग़म का इज़हार नहीं होता, बल्कि एक पैग़ाम है:

*कि करबला का ग़म आज भी ज़िंदा है।*

कि हुसैनी क़ुर्बानी सिर्फ़ तारीख़ का हिस्सा नहीं, बल्कि ज़िंदा हकीक़त है।

और कि अगर इमाम-ए-वक़्त (अ.फ.) खून रो सकते हैं, तो हमसे सिर्फ़ आँसुओं का तक़ाज़ा भी बहुत बड़ा है।

क्या हमारी आँखें सूखी रह सकती हैं,

जब हमारे मौला का दिल हर रोज़ कर्बला के ग़म से छलनी होता है?

*बदलते अंदाज़ — इबादत या दिखावा?*

आजकल देखा जा रहा है कि आज़ादारी के नए अंदाज़ सामने आ रहे हैं।

कहीं डीजे पर नौहे बजते हैं,

कहीं जुलूस एक खेल-तमाशे की शक्ल अख़्तियार कर लेता है,

और कहीं मातम सिर्फ़ सोशल मीडिया की वीडियो और तस्वीरों तक सिमट जाता है।

क्या यही वो आज़ादारी है जिसके लिए हमारे अजदाद ने अपने सीने खोले थे? क्या यही वो आँसू हैं जो इमाम-ए-वक़्त (अ.फ.) के आँसुओं की गवाही दे सकें?

*मरजईयत की हिदायतें — राहनुमा की आवाज़*

मरजईन-ए-कराम, ख़ास तौर पर आयतुल्लाह सैयद अली सिस्तानी और रहबर आयतुल्लाह सैयद अली खामेनई ने साफ़ तौर पर फ़रमाया है:

आज़ादारी का असल मक़सद हुसैनी पैग़ाम को ज़िंदा रखना है, न कि तमाशा बनाना।

हर वो काम जो आज़ादारी को बदनाम करे या उसकी पवित्रता को नुक़सान पहुँचाए — उससे बचना वाजिब है।

मातम, नौहा, जुलूस — सब तब तक क़ीमती हैं जब तक वो शरीअत और अख़लाक़ी हदूद में हों।

अगर कोई नया अंदाज़ आज़ादारी को मज़ाक बना दे, तो उससे दूर रहना ज़रूरी है।

यह सिर्फ़ फ़तवा नहीं, बल्कि हमारे ईमान को बचाने की राह है।

*नए ट्रेंड के पीछे साज़िश*

हमें यह भी सोचना होगा कि ये नए-नए ट्रेंड अचानक कहाँ से आ गए? क्या यह सिर्फ़ नौजवानों का जोश है, या इसके पीछे कोई गहरी चाल छुपी है?

दुश्मन हमेशा से यही चाहता रहा है कि आज़ादारी की असल ताक़त को कमज़ोर कर दिया जाए।
क्योंकि आज़ादारी ज़ालिम ताक़तों के ख़िलाफ़ मज़हबी और इंसानी एहतिजाज का सबसे बड़ा ज़रिया है।

*अगर इसे सिर्फ़ "शो" बना दिया जाए, तो इसका असर ख़त्म हो जाएगा।*

*क़ुरान और अहलेबैत का नज़रिया*

क़ुरान में साफ़ फ़रमाया गया:

> "क़ुल ला असअलुकुम अजरन इल्लल मौद्दता फ़िल क़ुर्बा"

(मैं तुमसे अपनी रिसालत की मज़दूरी नहीं चाहता, सिवाय इसके कि तुम मेरे क़रीबियों से मोहब्बत करो।)

*इमाम हुसैन (अ) की याद में आँसू बहाना, मातम करना — यही मोहब्बत-ए-अहलेबैत है। लेकिन अगर यह मोहब्बत दिखावे और तमाशे में बदल जाए, तो इसकी रूह मर जाती है।*

*हज़रत ज़ैनब (स) ने कर्बला के बाद सिर्फ़ मातम ही नहीं किया, बल्कि पैग़ाम को दुनिया तक पहुँचाया। अगर वो सिर्फ़ रोती रहतीं, तो आज पैग़ाम-ए-हुसैनी इंसानियत तक न पहुँचता। इसका मतलब साफ़ है कि आज़ादारी सिर्फ़ आँसू नहीं, बल्कि हुसैनी पैग़ाम की हिफ़ाज़त है।*

*हमारे सामने दो रास्ते*

आज क़ौम के सामने दो रास्ते खड़े हैं:

*1. ख़ालिस और दिल-सोज़ आज़ादारी — जिसमें आँसू, मातम और नौहा सिर्फ़ इमाम (अ) की याद और उनकी क़ुर्बानी के लिए हों।*

*2. नए ट्रेंड वाली आज़ादारी — जिसमें दिखावा, सोशल मीडिया की शोहरत और बे-रूह रस्में हों।*

हमें यह तय करना होगा कि हम किस रास्ते पर चलना चाहते हैं।

*हमारी ज़िम्मेदारी*

अज़ादारी कोई फैशन नहीं है। यह हमारी रूह की तसल्ली, दिल की पनाह और ईमान की मज़बूती है। अगर इसमें मिलावट आ गई, तो आने वाली नस्लें सिर्फ़ रस्म देखेंगी, पैग़ाम नहीं समझेंगी।

*इसलिए ज़रूरी है कि:*

हम अपने घरों और समाज में इख़लास वाली अज़ादारी को ज़िंदा रखें।

*मरजईयत की हिदायतों पर अमल करें।*

दुश्मन की चाल को पहचानें और अज़ादारी को उसकी असल शक्ल — इबादत और तज़्किरा-ए-हुसैन (अ) — के तौर पर क़ायम रखें।

*✍️ जब हमारे मौला, इमाम-ए-वक़्त (अ.फ.) अपने जद इमाम हुसैन (अ) के ग़म में खून के आँसू रोते हैं, तो यह हमें झकझोरने के लिए काफ़ी है कि हमारी अज़ादारी भी उसी दर्द और उसी इख़लास का आईना बने।*

*आइये हम सब मिलकर अपने अजदाद की तरह ख़ालिस, दिल-सोज़ और पैग़ाम-परवर आज़ादारी को आगे बढ़ाएँ, ताकि दुनिया हमेशा जाने कि हुसैन (अ) सिर्फ़ एक शख़्सियत नहीं, बल्कि हक़ और इंसानियत  कायम करने के अलमबरदार हैं।*

*✍️सैयद रिज़वान मुस्तफा*

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