रिपोर्ट: सैयद रिज़वान मुस्तफा
तेहरान/किन्तूर, 4 जून 2025 – आज जब दुनिया भर में करोड़ों लोग इमाम रुहुल्लाह मुसावी खुमैनी (रह.) की 36वीं बरसी पर उनकी याद में अश्कबारी कर रहे हैं, तब यह ज़रूरी हो जाता है कि हम सिर्फ उन्हें एक क्रांतिकारी लीडर के तौर पर नहीं, बल्कि एक रूहानी मुजाहिद, समाज सुधारक और इंसानियत के हमदर्द के रूप में भी याद करें।
● तेहरान में बरसी की रौनक, कर्ब की गहराई
तेहरान स्थित इमाम खुमैनी के मजार पर सुबह से ही लाखों लोगों की भीड़ जमा है। आयतुल्लाह सैयद अली ख़ामेनेई ने मुख्य समारोह को संबोधित करते हुए इमाम को “ज़माने के हुसैन” और “इस्लामी इज़्ज़त का मुजस्समा” करार दिया। देश-विदेश से आए मेहमानों ने इमाम के बताये उसूल — इस्तीक़लाल, आज़ादी और इस्लामी हुकूमत — पर दोबारा अमल करने का अहद लिया।
● भारत की मिट्टी में बसी मोहब्बत: खुमैनी साहब और किन्तूर
शायद बहुत से लोग न जानते हों, लेकिन इमाम खुमैनी (रह.) का रिश्ता भारत से सिर्फ रूहानी नहीं, नस्ली और ऐतिहासिक भी था। उनके दादा, सैयद अहमद मुसावी हिन्दी, बाराबंकी (उत्तर प्रदेश) के किन्तूर इलाक़े से ताल्लुक रखते थे और अंग्रेज़ों के खिलाफ जद्दोजहद का हिस्सा रहे। अंग्रेज़ों की सख्ती के बाद वो इराक और फिर ईरान जियारत के लिए गए तो खुमैन शहर जा बसे — जहाँ इमाम का जन्म हुआ।
इसी रिश्ते का असर था कि इमाम ने अपने नाम के साथ “हिंदी” लगाना नहीं छोड़ा। यह उनके वतन भारत से मोहब्बत का सबसे बड़ा सबूत था।
● किन्तूर में जारी आंखों की रोशनी — इमाम की याद में
आज इमाम खुमैनी की याद में किन्तूर और आस-पास के गांवों में इमाम खुमैनी फाउंडेशन की ओर से आँखों के इलाज, चश्मा वितरण और मोतियाबिंद ऑपरेशन जैसे कार्यक्रम जारी हैं। हर ऑपरेशन मानो उनके उस जुमले की ताबीर है:
“जिस समाज में एक आंख रोशनी से महरूम हो, वहाँ हुकूमत अंधी होती है।”
● बरसी पर मजलिसें, जुलूस और तहरीक़ें
लखनऊ, बाराबंकी, हैदराबाद, दिल्ली और श्रीनगर में इमाम खुमैनी की याद में मजलिसें, जुलूस-ए-अज़ा और तज्लिया-ए-तहरीक़ का आयोजन हुआ। शिया-सुन्नी दोनों फिरक़ों के उलेमा और आम लोग इस बात पर मुत्तफ़िक़ थे कि इमाम खुमैनी (रह.) सिर्फ एक फिरक़े के नहीं, पूरे उम्मत-ए-मुस्लिमा और मज़लूमों के रहनुमा थे।
● यौमे-क़ुद्स और बरसी: दो पहलू एक पैग़ाम
इमाम की बरसी के नज़दीक ही यौमे-क़ुद्स का दिन आता है — जो उन्होंने खुद ऐलान किया था। इस साल भी भारत और दुनिया भर में मस्जिदों, जुलूसों और सोशल मीडिया पर "Quds Day is Humanity’s Day" के नारे गूंजे।
● युवाओं में जागृति: तालीमात-ए-इमाम की रोशनी
भारत के हौज़ों, कॉलेजों और ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स पर आज भी इमाम की किताबें पढ़ी जा रही हैं — हुकूमत-ए-इस्लामी, तहरीर-उल-वासिला, और सालिकों की तर्बियत। यह साबित करता है कि उनका इंकलाब अब सिर्फ भूगोल में नहीं, दिलों में ज़िंदा है।
● बरसी पर पैग़ाम: इमाम का ख़्वाब अधूरा नहीं
इमाम खुमैनी (रह.) ने एक ख्वाब देखा था — मज़लूमों के लिए इज़्ज़त, जालिमों के लिए शिकस्त, और उम्मत के लिए इत्तेहाद। उनकी बरसी पर ये सवाल नहीं उठता कि वो चले गए, बल्कि यह यक़ीन उभरता है कि:
"इमाम खुमैनी अभी भी ज़िंदा हैं — हर उस मज़लूम के दिल में जो जुल्म के खिलाफ खड़ा है।"
रिपोर्टर: सैयद रिज़वान मुस्तफा
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