✍️ इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) की शहादत और हमारी खामोश बेशर्मी पर एक आईना
📜 जिन्होंने इल्म के दरवाज़े खोले... उन्हें हमने ज़हर पिलाकर दफना दिया – और अब भूल भी गए!
7 ज़िलहिज्जा को हर साल एक ऐसा सूरज डूबता है जिसने अंधेरे में डूबी इंसानियत को रौशनी दी थी। मगर अफ़सोस! आज जब इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) की शहादत का दिन आता है तो क़ौम या तो सोती रहती है, या शायरी करती है, या 'काली डीपी' लगाकर क्रांति समझती है।
🎭 इमाम का मन्सब, हमारी मजबूरियाँ
- इमाम ने हज़ारों हदीसें सिखाईं,
- इल्म की बुनियाद रखी,
- ज़ालिम खलीफाओं को बेनक़ाब किया,
- ज़हर पी लिया लेकिन हक़ का सौदा नहीं किया।
और हमारी हालत?
- “मजलिस किस टाइम है?” पूछकर Netflix चला देते हैं,
- फातिहा की जगह WhatsApp स्टेटस डालते हैं,
- और ये भी पूछ लेते हैं – 'क्या वाकई ये आज ही शहीद हुए थे?'
वाह रे क़ौम! तुझ पर तो वो मलंग भी रोता होगा जिसने कभी मस्जिद के बाहर बैठकर इमाम के फरमान सुने थे।
📱 इल्म छोड़कर रील्स, ताफ्सीर छोड़कर ट्रेंड्स
इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) ने किताबें दीं, हमने कैरम बोर्ड और PUBG उठा लिया।
उन्होंने कहा "तालीम लो", हमने कहा "WiFi पासवर्ड क्या है?"
उन्होंने जुल्म के खिलाफ आवाज़ बुलंद की, हमने कहा "अरे पॉलिटिक्स में क्यों पड़ें?"
आज का नौजवान इमाम को जानता ही नहीं, बस जानता है कि "कौन सा इमाम कब शहीद हुआ और कब मैसेज फॉरवर्ड करना है!"
🤐 शहादतें याद हैं, मगर असर नहीं
जब इमाम को ज़हर दिया गया, तब उन्होंने बेटे जाफर सादिक (अ.स.) को दीन की अमानत सौंपी।
हम क्या सौंपते हैं अगली नस्ल को?
- TikTok की Tricks
- 'Mashallah' वाली DP
- और जुमे की नमाज़ के बाद भी 3 हफ्ते की ग़फ़लत
🤡 कब्रों पर चादरें डालने वाले, क़ब्र के पैग़ाम को भूल गए
जन्नतुल बक़ी में जहां इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) आराम फरमा हैं, वहां आज दीवार भी नहीं है।
और इधर, अपने इलाक़े में हम इमामबाड़ों के सामने TikTok स्टार्स को शूट करते हुए देखते हैं।
इमाम को खिराजे अकीदत नहीं चाहिए, उन्हें अपनी उम्मत की गैरत चाहिए थी – जो अब Lost & Found में भी नहीं मिलती।
🔥 अगर इमाम आज होते तो...
- वो फिर से किताबें खोलते, हम फिर Netflix खोलते।
- वो हक़ का परचम उठाते, हम उसे कैंसल करने की कोशिश करते।
- वो हमें आवाज़ देते, हम कहते – “Bro, थोड़ा रिलैक्स कर लो!”
🪞 ज़हर आज भी है – बस रंग बदल गया है
अब ज़हर किसी हशाम ने नहीं, हमने खुद पी लिया है:
- बेहिसी का ज़हर
- सोशल मीडिया के नशे का ज़हर
- मज़हबी मौकापरस्ती का ज़हर
- और सबसे खतरनाक – इमाम की कुर्बानी को महज़ तारीख़ी घटना समझने का ज़हर
📣 आख़िरी अल्फ़ाज़ – इमाम शहीद हुए, और तुम लाइव नहीं आए?
क़ौम! तुम्हें हया नहीं आती?
जिस इमाम ने खून देकर हक़ ज़िंदा रखा, उसके नाम पर तुम सिर्फ मातम करते हो लेकिन उसके मिशन से भाग जाते हो?
मजलिस से बाहर निकलकर भी कुछ करो – वरना अगली नस्ल पूछेगी, "क्या बाक़िर नाम का कोई था?"
✊ अगर वाकई ग़म है... तो उठो!
- किताब खोलो
- बच्चों को इल्म सिखाओ
- जालिमों के खिलाफ बोलो
- मज़हब को कारोबार मत बनाओ
- और हां, रील्स कम बनाओ – क़ौम ज़िंदा बनाओ
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