मशहद ईरान में ही नहीं, लखनऊ की सरज़मीं पर इमाम रज़ा अ.स. का रौज़ा – अज़ादारी, ख़िदमत और इख़लास का एक मरकज(आज शहादत-ए-इमाम अली रज़ा अ.स. की याद में)


निदा टीवी डेस्क/हसनैन मुस्तफा

लखनऊ – वह शहर जिसकी फ़िज़ा में तहज़ीब, अदब, और अहलेबैत अ.स. की मोहब्बत रची-बसी है। इसी पाक सरज़मीं पर एक नायाब हीरा चमकता है — मशहद-ए-मुक़द्दस, ईरान में मौजूद इमाम अली रज़ा अ.स. के मुक़द्दस रौज़े की हूबहू नक़ल। यह रौज़ा सिर्फ़ एक इमारत नहीं, बल्कि ताज़ियादारी, ख़िदमत-ए-ख़ल्क़ और इख़लास का ऐसा मरकज़ बन चुका है, जहाँ हर मज़हब और तबक़े के लोग सर झुकाकर आते हैं।

अज़ीमुल्लाह ख़ाँ की विरासत – इमाम रज़ा अ.स. की मोहब्बत में अज़मत की मिसाल

मोहम्मद अली शाह के ख़ततराश, अज़ीमुल्लाह ख़ाँ, जिनकी दौलतमंदी और दरियादिली की मिसालें दी जाती हैं, उन्होंने इस रौज़े का निर्माण कराया। उनकी सवारी निकलती तो सैकड़ों रुपये फ़क़ीरों और ज़रूरतमंदों में बांट दिए जाते। 2 जमादिउल आखिर 1265 हिजरी (17 अप्रैल 1849 ई.) को उनका इन्तेक़ाल हुआ और उन्हें उसी रौज़े में दफ़न कर दिया गया, जिसकी तामीर में उन्होंने अपनी ज़िन्दगी भर की मोहब्बत उड़ेल दी थी।

रौज़े की इमारत गगनचुंबी है — चारों ओर से गुलामगर्दिशें, सहन में लम्बी हौज़ नहर की शक्ल में, मस्जिदे गौहरशाद की नक़ल में बनी पश्चिमी मस्जिद, और दारुश्शिफ़ा नाम का ऐसा क्लीनिक जहाँ आज भी हर मर्ज़ की मुफ़्त दवा मिलती है — यह सब लखनऊ में रौज़ा-ए-रज़वी की रूहानी शक्ल को मुकम्मल करते हैं।

बर्बादी से बहाली तक – सैय्यद शाह साहब की ख़िदमत

वक़्त ने एक दौर ऐसा भी दिखाया जब यह इमारत गिरने को थी। लापरवाही इस क़दर बढ़ चुकी थी कि जानवर रौज़े के अंदर घूमते, दीवारें झड़ रही थीं और कोई पूछने वाला न था। फिर एक अल्लाह वाले, सैय्यद शाह साहब को इस ख़िदमत के लिए चुना गया। 1996 में उन्होंने इमाम अली रज़ा अ.स. फाउंडेशन की बुनियाद रखी और बिना किसी मदद के, अपने दम पर इस पाक रौज़े के जीर्णोद्धार की ज़िम्मेदारी उठाई।

आज वही इमारत फिर से चमक रही है। अल्लाह की मदद और मोहब्बत-ए-इमाम की बदौलत यह रौज़ा साल भर निर्माण और बहबूदी कामों का मरकज़ बना हुआ है। यहाँ हर लम्हा इख़लास की खुशबू महसूस होती है।

आज का मंजर – अज़ादारी, अश्क और आह

आज इमाम अली रज़ा अ.स. की शहादत का दिन है। रौज़े के सहन में हज़ारों अज़ादार जमा हैं। ताबूत-ए-इमाम रज़ा अ.स. सजा हुआ है, सबीलें लगाई गई हैं, ग़म का समंदर हर आंख से छलक रहा है। अंबरी चादरों से ढँका ताबूत जब सीनों पर आया तो एक आह सी उठी — "या अली इब्ने मूसा रज़ा अ.स.!"

मजलिसों का दौर जारी है — जिक्र-ए-मसाइब, इबादतें, और नज़र-नियाज़ का सिलसिला पूरे एहतेराम से निभाया जा रहा है। बच्चे, बूढ़े, औरतें, नौजवान – हर कोई काले कपड़ों में ग़मगीन। आँखों से आंसू, होंठों पर सलाम और दिलों में इमाम की मोहब्बत। यह मंजर सिर्फ़ शहादत की याद नहीं, बल्कि हमारे रूहानी रिश्ते की गवाही है।

ख़िदमत का दूसरा नाम – इमाम रज़ा फाउंडेशन

यहाँ अज़ादारी के साथ-साथ इंसानियत की भी बेहतरीन मिसाल क़ायम की जा रही है। इमाम रज़ा फाउंडेशन द्वारा बिना किसी मज़हबी भेदभाव के रोज़ाना सैकड़ों मरीज़ों का मुफ़्त इलाज किया जाता है। साल भर में दर्जनों महंगे ऑपरेशन कराए जाते हैं जिनका खर्च लाखों में होता है, मगर किसी मरीज़ से एक पैसा नहीं लिया जाता।

राशन, कपड़े, किताबें, फ़ीस, ट्यूशन, खाने-पीने का सामान – जो भी ज़रूरत हो, यहाँ हर इंसान के लिए है। यह रौज़ा सिर्फ़ ईंट-पत्थर नहीं, बल्कि जिंदा दिलों का मर्कज़ है।

लखनऊ की फ़िज़ा में रज़ा अ.स. का नूर

यह इमारत, यह रौज़ा, यह अज़ादारी — सब मिलकर लखनऊ की रूह में इमाम रज़ा अ.स. की मोहब्बत का नूर घोलते हैं। यह रौज़ा हमें बताता है कि जदीदियत और दीनी तहज़ीब एक साथ चल सकते हैं, बशर्ते इरादा पाक हो और मक़सद नेक।

आज जब हम रौज़े में दाखिल होते हैं, और मस्जिदे गौहरशाद की नक़ल के उस हौज़ को देखते हैं, तो दिल से एक ही आवाज़ आती है:
"या अली इब्ने मूसा रज़ा अ.स., हम लखनऊ वाले आपके ग़म में शरीक हैं — और रहेंगे क़यामत तक!"


अल्लाह इमाम रज़ा अ.स. के सदक़े हम सबकी दुआएँ क़ुबूल करे और इस रौज़े को हमेशा महफूज़ और आबाद रखे। आमीन।

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