अमरीका और इज़राइल की चालबाज़ियों में उलझा भारतीय नौजवान: फोरेक्स, बिटकॉइन, गेमिंग, जुए और सूद में डूबती क़ौम — लेकिन क्यों खामोश है मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और देश के उलमा?

निदा टीवी डेस्क/सैयद हसनैन मुस्तफ़ा 

भारत के गांवों और शहरों में एक खतरनाक बदलाव आ रहा है। नौजवान, जो कभी तालीम, तहज़ीब और मज़हबी शऊर के वाहक थे, आज मोबाइल स्क्रीन, डिजिटल सट्टा, हराम कमाई और झूठे ख्वाबों की गिरफ्त में आ चुके हैं। बिटकॉइन, फोरेक्स, गेमिंग एडिक्शन, ऑनलाइन सट्टा, सूदखोरी और लॉटरी स्कीमों के जरिए पूरी की पूरी नस्ल को बर्बादी की तरफ धकेला जा रहा है।

यह हमला किसी एक व्यक्ति या क्षेत्र पर नहीं, बल्कि पूरी मुस्लिम क़ौम पर हो रहा है। यह एक नफ्सानी और तहज़ीबी जंग है। लेकिन सवाल यह है कि जब हालात इतने संगीन हैं, तो ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, दारुल उलूम, बरेली शरीफ, लखनऊ, हैदराबाद, और देश भर के बड़े मदरसों व उलमा की खामोशी क्यों?

1. नौजवानों पर आधुनिक युग का हमला:

फोरेक्स, बिटकॉइन और क्रिप्टोकरेंसी जैसी डिजिटल योजनाओं के नाम पर लालच फैलाया जा रहा है। YouTube, Telegram और WhatsApp जैसे माध्यमों से "रातों-रात अमीर बनने" का नशा नौजवानों के दिमाग में उतारा जा रहा है।

फोरेक्स में बिना तालीम के घुसना आत्मघाती है।

बिटकॉइन में अस्थिरता और फरेब है।

सट्टा, MPL, Dream11, और लॉटरी स्कीमें गरीब तबकों को तबाह कर रही हैं।

2. हराम और ब्याज (सूद) का कारोबार:

ब्याज पर पैसा देना और लेना, कमीशन खोरी, और हराम मुनाफे को “स्मार्ट इनकम” कहकर पेश किया जा रहा है। नौजवान अब मेहनत नहीं, शॉर्टकट ढूंढ रहे हैं। यह सीधे इस्लामी उसूलों के खिलाफ है, लेकिन मज़े की बात ये है कि मस्जिदें चुप हैं, मिम्बर खामोश हैं।

3. मोबाइल गेम्स और मानसिक नशा:

PUBG, Free Fire, और तमाम मोबाइल गेम्स ने छोटे बच्चों तक को अपनी गिरफ्त में ले लिया है। पूरी रात मोबाइल पर गेम खेलना, इबादत और तालीम से दूरी, और रिश्तों से बेरुखी—ये सब अब आम हो गया है। ये सिर्फ खेल नहीं, बल्कि मानसिक गुलामी का टूल बन चुके हैं।

4. सवाल जो झकझोरते हैं: क्यों खामोश है मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और देश के उलमा?

क्या यह सिर्फ निकाह, तलाक और हलाला जैसे मसलों तक सीमित हो गया है?

जब पूरी क़ौम का अख़लाक और नस्लें मिटाई जा रही हैं, तो क्या यह सिर्फ समाज का मसला है, मज़हब का नहीं?

उलमा हर जुमे को मिम्बर से फज़ीलतें बताते हैं, मगर क्या बर्बाद होती नस्ल पर चुप रहना जायज़ है?

क्या कोई बयान, फ़तवा या जागरूकता मुहिम इन संस्थाओं ने शुरू की?

क़ौमी रहनुमाओं की यह खामोशी क़ाबिले ग़ौर ही नहीं, बल्कि क़ाबिले अफ़सोस है।

अगर उलमा और मज़हबी इदारें वक़्त रहते नहीं जागे तो:

मस्जिदें खाली होती जाएंगी।

मदरसों के छात्र सट्टेबाज बनेंगे।

कुरआन छोड़कर क्रिप्टो की किताबें पढ़ी जाएंगी।

दीनी रहनुमा का रोल यूट्यूब के फ़र्ज़ी "गुरु" ले लेंगे।

6. हल और हिदायत:

मस्जिदों से हराम कमाई, फोरेक्स, जुए और गेमिंग के खिलाफ बयानात हों।

मदारिस में ‘अख़लाकी और आर्थिक शिक्षा’ को जोड़कर तालीम दी जाए।

पर्सनल लॉ बोर्ड इस मुद्दे पर ऑल इंडिया लेवल पर इजलास बुलाए और रणनीति बनाए।

युवा सम्मेलनों में इन मुद्दों को हल्के में नहीं, गंभीर एजेंडे के तौर पर लिया जाए।

दुश्मन हमें गोली से नहीं, गुमराही और हराम से खत्म कर रहा है। और अफसोस यह है कि हमारे रहबर, उलमा और इदारें इस मुद्दे पर न सुन रहे हैं, न बोल रहे हैं, और न ही कुछ कर रहे हैं।

आज अगर हमने खामोशी तोड़ी, तो शायद नस्लें बच सकें। वरना आने वाली पीढ़ी हमसे यही पूछेगी:

"जब हमें जुआ, सूद और फरेब में डुबाया जा रहा था, तब हमारे उलमा और रहबर कहां थे?"

“अगर मिम्बर से ज़हर का इलाज न मिला, तो ज़हर घर-घर पहुंच जाएगा।”

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