निदा टीवी डेस्क
कभी-कभी ज़िंदगी हमें उन लम्हों से नवाज़ देती है जो वक़्त की गर्द में खोते नहीं, बल्कि दिल के आईने पर हमेशा के लिए चमकते रह जाते हैं। ऐसा ही एक दिलनशीं और रूहानी मंज़र उस वक़्त देखने को मिला जब दुनिया-ए-तशय्यो के मक़बूल और अज़ीम मुफस्सिर, इमामे ज़माना अ.फ. के नायब, आयतुल्लाहुल उज़मा सैय्यद अली सिस्तानी दाम ज़िल्लहु के भारत स्थित मक़ामी दफ़्तर के सवाल-जवाब विभाग के ज़िम्मेदार, हुज्जतुल इस्लाम मौलाना अली हाशिम आबिदी साहब क़िब्ला और हिंदुस्तान के मक़बूल शायर-ए-अहलेबैत जनाब जावेद बरकी साहब ने तहलका टुडे के एडिटर सैयद रिज़वान मुस्तफ़ा की अयादत के लिए उनके गरीब खाने को रोशन किया।
यह महज़ एक मुलाक़ात नहीं थी—यह रूहों की ताजगी, इमान की तरावट और वफ़ा के मानी को फिर से जीने का एक जिंदा एहसास था।
बरकी साहब न सिर्फ़ आए, बल्कि अपने लबों से जो नज़्में बरसाईं, वह फूल नहीं थे—वह रूहानी गुलाब थे, जिनकी ख़ुशबू से महफिल महक गई।
"दर अब्बास का असर आज भी बाकी है..."
जब जनाब जावेद बरकी साहब ने अपने कलाम के जौहर दिखाए, तो ऐसा लगा जैसे अलम उठ गया हो, नहर पास आ गई हो, और हज़रत अबुल फ़ज़्लिल अब्बास अ. की शुजाअत और वफ़ादारी एक बार फिर लफ़्ज़ों में ढलकर दिलों पर दस्तक देने लगी हो:
आईना है मौजे दरिया पर असर अब्बास का
आज भी है नहर के नज़दीक घर अब्बास का
सारी दुनिया जिस जगह से पाती है रिज़्क़े वफा
वह खुदा का घर नहीं है वह है दर अब्बास का
मैं ख़लीले वक्त हूं शोलों को कर देता हूं गुल
जब अलम होता है मेरे दोश पर अब्बास का
इन अशआर में सिर्फ़ शायरी नहीं, बल्कि एक अकीदा, एक मोहब्बत और एक निस्बत है उस दर से जो आज भी मज़लूमों का सहारा है, वफ़ादारों का मरकज़ है, और मोमिनों का अकीदा है।
बरकी साहब की अयादत: दिलों की दवा
सैयद रिज़वान मुस्तफा के लिए ये लम्हा न सिर्फ़ फख्र का था, बल्कि एक रूहानी तस्सली भी थी। जब बरकी साहब जैसे अज़ीम शायर अपने लहजे से दुआ बन जाएं, तो समझ लीजिए अल्फ़ाज़ अब महज़ हर्फ़ नहीं रहते—वो इल्हाम बन जाते हैं।
बरकी साहब की मौजूदगी, उनकी दुआ, और उनका कलाम उस मिज़ाज का मरहम था जिसे सिर्फ़ अहलेबैत अ. की मोहब्बत में डूबे दिल ही समझ सकते हैं।
हुज्जतुल इस्लाम मौलाना अली हाशिम आबिदी: ख़िदमत की ख़ामोश कश्ती
हुज्जतुल इस्लाम मौलाना अली हाशिम आबिदी साहब न सिर्फ़ इल्मी मैदान में रौशनी का मशअल हैं, बल्कि इमामे ज़माना अ.फ. के नायब के ज़रिए हिदायत की जो शम्अ जलाते हैं, वो कई दिलों को रौशन करती है।
उनके सलीके, सादगी और इख़लास की गवाही हर वो मोमिन देता है जो उनके पास सवाल लेकर आता है और जवाब में यकीन और रौशनी लेकर लौटता है।
यह एक मुक़द्दस लम्हा था...
ऐसे लम्हे जब रूहानी अहसासात और अदबी ज़ौक़ एक ही फ़ज़ा में समा जाएं, तो उन्हें लफ़्ज़ों में कैद करना आसान नहीं होता। बरकी साहब की अयादत और उनका कलाम दोनों ही एक ऐसी दौलत हैं जिसे दिल के ख़ज़ाने में महफ़ूज़ रखना चाहिए।
वो नज़्में जो बरकी साहब ने पेश कीं, वो दरअसल अब्बास अ. की शान का परचम थीं, जो एक बार फिर इस ज़मीन पर लहराया गया।
सलाम दोनों आलिमों को जो इमाम के खादिम की अयादत में तशरीफ लाए।
अली मुस्तफा
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