कुछ उलेमा और लोग वक़्त के साथ नहीं चलते – वक़्त उन्हें सलाम करता है।
कुछ रिश्ते लहू से नहीं, दुआओं और वफ़ाओं से बनते हैं।
हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लेमीन मौलाना सैयद सफी हैदर जैदी साहब ऐसा ही एक नाम हैं –
एक वजूद नहीं, एहसास हैं। एक चेहरे नहीं, नूर हैं। एक शख़्स नहीं, साया-ए-रहमत हैं।
ईद की चाँद रात और एक क़ल्बी इम्तिहान
जब ज़िन्दगी और मौत के दरम्यान धड़कनों की सरहद डगमगाने लगे,
और अस्पताल की दीवारें बेबसियाँ गिनने लगें,
तब किसी की दुआ, किसी की परछाईं,
रूह को ज़िंदा कर सकती है।
ईद की वो रात थी – जब हर कोई नए कपड़े, मीठी सेवईं और चाँदनी में खोया था।
लेकिन मेरे लिए वो रात बेकसी की चुप्पी थी, आईसीयू की गूंज थी, और एक सन्नाटा था जो दिल की नसों से बात कर रहा था।
मौलाना साहब को जैसे ही खबर मिली –
लब थरथरा उठे, आँखें भीग गईं, और जुबां पर दुआ की आगाज़ हुआ।
ईद का दिन नमाज पढ़कर सीधे मेदांता हॉस्पिटल अपने तमाम दर्द, थकावट, और कमज़ोरी को नज़रअंदाज़ करते हुए,
वो एक छड़ी के सहारे, मगर दिल की ताक़त से चल पड़े मेरी तरफ।
जैसे दुआओं की शक्ल पहनकर कोई फरिश्ता उतर आया हो
मेदांता हॉस्पिटल की सख्त सिक्योरिटी, तमाम पाबंदियाँ –
जैसे खुदा ने उनके लिए रास्ते खोल दिए।
वो सीधा ICU में मेरे सिरहाने आ पहुँचे –
और मेरी तन्हाई में रूहानी जश्न बरपा हो गया।
जब आँखें खुलीं, और उनके चेहरे का नूर देखा –
दिल की हर धड़कन सज्दे में चली गई।
उन्होंने हाथ सीने पर रखा, कुछ पढ़ा –
और वो सिर्फ अल्फ़ाज़ नहीं, रूहानी इक्सीर थे।
ऐसा लगा, जैसे खुदा ने अपने करम की एक झलक मेरे लिए भेज दी हो।
वो रहबर जो सिर्फ तालीम नहीं देते – मोहब्बत का इल्हाम देते हैं
मौलाना साहब एक 1200 मकतबों के बोर्ड तंजीमुल मकातिब के सेक्रेटरी हैं, लेकिन असल में वो हैं –
इमाम अली (अ) की रहमत का ज़िंदा नमूना।
उनका साया, उनकी दुआ, और उनकी आँखों की फिक्र –
हर अलीवाला के लिए जन्नत की एक झलक है।
उनके आने से मुझे सिर्फ राहत नहीं मिली –
बल्कि यक़ीन मिला कि आज भी मोहब्बत जिंदा है, और वो खुदा के नेक बंदों के दिलों में बसती है।
दुआ – एक टूटे दिल की पुकार
ऐ मालिक-ए-कुन!
मेरे बिस्तर तक इस रौशन साए को भेजने वाले
तू उसे उम्र की बरकत दे, सेहत का गहना दे,
उसके कदमों को तेरी राहों का फूल बना दे,
और उसकी छड़ी को रहमत का झंडा।
एक पैग़ाम इस दौर के लिए
जब रिश्ते मतलब की दुकान बन जाएं,
जब इंसानियत फेसबुक स्टेटस बन जाए,
तब मौलाना सफी हैदर जैदी साहब जैसे लोग
इस बात की तस्दीक़ हैं कि रूह, वफ़ा, और दुआ – अब भी इस दुनिया में ज़िंदा हैं।
सैयद रिज़वान मुस्तफ़ा
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