निदा टीवी डेस्क
इन्ना लिल्लाही व इन्ना इलैही राजिऊन
हर शहर की रूह में कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनका होना सिर्फ नाम या शक्ल नहीं, बल्कि एक रहमत होता है। बेगमगंज की सरज़मीन ने भी एक ऐसे ही नायाब हीरे को खो दिया—हाजी अब्दुल्ला साहब।
हाजी अब्दुल्ला साहब सिर्फ शरीफुल्ला भाई और हबीबुल्ला भाई के वालिद नहीं थे, बल्कि वो पूरे मोहल्ले के बुजुर्ग, रहबर और खिदमत की मिसाल थे। उनका घर महज़ चार दीवारी नहीं, बल्कि सुकून की एक पनाहगाह था। उनके लहजे में नर्मी, उनके अमल में पाकीज़गी और उनकी नीयत में बे-लौस मोहब्बत का समंदर था।
हज का नाम लेते ही उनकी आँखें भीग जाती थीं। हाजियों की खिदमत को उन्होंने अपनी ज़िंदगी का मक़सद बना लिया था। चाहे दिन हो या रात, बीमारी हो या थकान—जब भी कोई हज पर जाने वाला मिलता या उनके पास आता, हाजी साहब की खिदमत और रहनुमाई उसके साथ होती।
कभी पासपोर्ट बनवाने की मशविरा, कभी सामान की फेहरिस्त, कभी तवाफ के मसाइल, कभी दुआओं की लिस्ट—हर कदम पर वो अपनेपन के साथ मौजूद रहते।
वो सिर्फ खिदमत करते नहीं थे, खिदमत बन चुके थे।
उनकी नमाज़-ए-जनाज़ा सुबह 10 बजे जामा मस्जिद मरकज़ बेगमगंज में अदा की जाएगी और तद्फीन कर्बला वजहन शाह बेगमगंज में होगी।
खुशकिस्मती देखिए कि उन्हें सुपुर्द-ए-ख़ाक भी उस सरज़मीं में किया जाएगा जो शहीद-ए-कर्बला से मंसूब है।
क्या ही मुक़द्दर की बात है कि जिनकी ज़िंदगी खिदमत में गुज़री, उन्हें आख़िरी आरामगाह भी ऐसी पाक ज़मीन में मिली।
उनके इंतक़ाल से सिर्फ एक शख्स नहीं गया, बल्कि एक दौलत, एक मोहब्बत, एक दुआओं की खान चली गई। मगर यक़ीन है कि अल्लाह की बारगाह में अब भी वो उसी तरह खिदमत में होंगे—रौशन चेहरे, सजदा रेज़ दिल और दुआओं से भरी जुबान के साथ।
दुआ है कि अल्लाह पाक मरहूम को जन्नतुल फिरदौस में आला मुकाम अता फरमाए,
उनकी मगफिरत फरमाए और उनके अहले खानदान को सब्र-ए-जमील अता करे।
"कुछ लोग रुह बन जाते हैं मोहब्बत की,
जाते हैं मगर हर दुआ में रह जाते हैं..."
सैयद रिज़वान मुस्तफा
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