नगराम, लखनऊ |कुछ नाम शोहरत से नहीं, खिदमत से रोशन होते हैं। कुछ चेहरों की चमक आईनों से नहीं, दिलों से झलकती है। और कुछ लोग ऐसे होते हैं जो खुद ताज नहीं पहनते, मगर हर दिल में बादशाह बनकर बस जाते हैं।
मुज्तबा अब्बास फ़सीह — उन्हीं शख्सियतों में से एक हैं।
सैयद तकी अब्बास रिजवी साहब के बेटे और नगराम के देश की आजादी से लेकर नगर पंचायत बनने तक प्रधान रहे मरहूम सैयद अली अब्बास रिज़वी के पोते, मुज्तबा भाई सिर्फ एक शख्स नहीं, बल्कि नगराम की अज़ादारी की पहचान, और खामोश रूहानी कड़ी हैं। उनकी ढ्योड़ी, एक मकान नहीं, एक मज़हबी मरकज़ है। और उनके इरादे—पुख़्ता, सच्चे और फ़रिश्तों से भी पाक।
ढ्योड़ी-ए-सैयद अली अब्बास: जहाँ तहज़ीब, अकीदत और अज़ादारी की रूह बसती है
मोहर्रम का महीना जब आता है, नगराम की सरज़मीन एक अजीब जज़्बे से भर जाती है। और उसी जज़्बे की रौशनी से चमकती है एक जगह — मुज्तबा अब्बास फ़सीह के दादा की ढ्योड़ी।
यहाँ ना शोर है, ना दिखावा... सिर्फ एक सुकून है, एक रूहानी नूर, जो हर आज़ादार के दिल तक उतर जाता है।
लंगर की सादगी में सिफ़र से सौ तक की तैयारी।
शर्बत की मिठास में इमाम हुसैन की याद।
गर्मी में आइसक्रीम की ठंडक में मासूम अज़ादारों की तसल्ली
हर ज़र्रे में खिदमत का जूनून, हर कोने में मोहब्बत का सैलाब।
मुज्तबा भाई: खामोश रहकर दिल जीतने वाले
इनकी सबसे बड़ी ताक़त है इनकी खामोशी। ना मंच, ना मीडिया, ना माइक—बस एक सलीका, एक सादगी और एक ऐसा शऊर जो बहुत कम लोगों में मिलता है।
जब कोई कहता है "मुज्तबा भाई से मिलना है," तो ये मिलने की नहीं, महसूस करने की बात होती है। उनकी हर बात में अदब, हर लहजे में तहज़ीब और हर अमल में अज़ादारी की रवायत ज़िंदा होती है।
हौसला, हिम्मत और खिदमत को सलाम
उनकी खिदमत किसी इवेंट मैनेजमेंट नहीं—एक इबादत है।
उनका जज़्बा किसी नुमाइश का नहीं—एक मक़सद है।
उनका हौसला किसी फोटो खिंचवाने का नहीं—बल्कि नबी के नवासे की याद में पिघलने वाला इश्क़ है।
जो शख्स हर साल अपनी ढ्योड़ी में अज़ादारो लोगों की सेवा इस अंदाज़ में करे कि किसी को थकावट न हो, किसी को कमी महसूस न हो, और खुद कभी आगे आकर नाम न ले—ऐसे शख्स के लिए हम सिर्फ एक ही बात कह सकते हैं:
"ऐ मुज्तबा , आपका हर लम्हा, हर खामोश खिदमत, हमारे लिए एक सबक है—कि हुसैनी बनना शोर से नहीं, सलीके से होता है।"
तारीफ़ नहीं, दुआ है...
हम आपके हौसले को सलाम करते हैं,
आपकी रूहानी खिदमत को सजदा करते हैं,
और दुआ करते हैं कि:
"या हुसैन (अ.स)! इस जवान को उस कारवां का हिस्सा रख, जो कर्बला से उठकर आज तक तेरी राह में खिदमत कर रहा है।"
मुज्तबा अब्बास फ़सीह — एक सच्चे अज़ादार, एक नायाब बेटा, एक खामोश खिदमतगार, और एक चमकता हुआ सितारा हैं। नगराम की रूहानी ज़मीन पर ये सितारा यूं ही रोशन रहे, और हर साल मोहर्रम में उसका नूर और बढ़ता जाए।
सलाम उन आँखों को, जो बिना रोए भी अश्क बहा देती हैं,
सलाम उस दिल को, जो बिना बोले भी हुसैनियत की ज़बान बन जाता है।
और सलाम है आपको, मुज्तबा भाई—आप वाकई "अज़ादारी का फख्र" हैं।
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🌙 मुहब्बत, तहज़ीब और खिदमत की जीती-जागती मिसाल – मुज्तबा अब्बास फसीह भाई को सलाम
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