इमाम हुसैन अ.स. की विलादत: इंसाफ़ और हक़ की रोशनी
3 शाबान, एक ऐसा दिन जब इंसानियत के सबसे बड़े रहनुमा और ज़ुल्म के खिलाफ़ आवाज़ बुलंद करने वाले हज़रत इमाम हुसैन अ.स. की विलादत हुई। यह वह नाम है जो सिर्फ़ एक तारीखी किरदार नहीं बल्कि हर दौर के मज़लूमों के लिए उम्मीद और हिम्मत की मिसाल है। इमाम हुसैन अ.स. ने अपने पूरे जीवन में न केवल मज़लूमों की हिमायत की बल्कि कर्बला में अपना सब कुछ कुर्बान करके यह पैग़ाम दिया कि हुकूमतें चाहे कितनी भी ताक़तवर क्यों न हों, अगर वह इंसाफ़ से हट जाएं, मज़लूमों का हक़ मारें और दीन को अपने फायदे के लिए बदलें, तो उनके खिलाफ़ खड़ा होना हर इंसान की ज़िम्मेदारी बन जाता है।
आज, जब हम इमाम हुसैन अ.स. की विलादत का जश्न मना रहे हैं, हमें यह देखना चाहिए कि क्या हम उनके बताए हुए रास्ते पर चल रहे हैं? क्या हम ज़ालिम के खिलाफ़ मज़लूमों की आवाज़ बन रहे हैं, या फिर चुप रहकर जालिम की ताकत बढ़ा रहे हैं?
सरकारी साज़िशें और औक़ाफ़ की तबाही
आज जब हिंदुस्तान में सरकारें वक़्फ़ की जायदादों पर क़ब्ज़ा करने, इमामबाड़ों को तहस-नहस करने, और मुसलमानों की धार्मिक धरोहरों को मिटाने की कोशिशों में लगी हैं, तो क्या यह सवाल नहीं उठना चाहिए कि आख़िर यह सब क्यों किया जा रहा है?
जेपीसी वक़्फ़ बिल: औक़ाफ़ की तबाही का ब्लूप्रिंट
सरकारें जब भी किसी क़ौम को कमजोर करना चाहती हैं, तो सबसे पहले उसकी आर्थिक ताकत को खत्म करने की कोशिश करती हैं। वक़्फ़, जो मुसलमानों की तरक्की और समाजी भलाई के लिए एक बड़ा आर्थिक आधार था, आज सरकारी मंसूबों का शिकार हो रहा है। जेपीसी वक़्फ़ बिल के ज़रिये औक़ाफ़ की हिफाज़त के बजाय उसे हुकूमत के हाथों में सौंपने की कोशिश की जा रही है।
अगर आज हम चुप रहे तो कल मस्जिदें, इमामबाड़े और कर्बला भी सरकारी क़ब्ज़े में चले जाएंगे, और हमारे मज़हबी मुक़द्दसात सिर्फ़ किताबों में रह जाएंगे। हमें यह समझना होगा कि औक़ाफ़ सिर्फ़ कोई आम जायदाद नहीं बल्कि एक अमानत है, जिसे संभालना हर मुसलमान की ज़िम्मेदारी है।
इमामबाड़ों पर हमले: इमाम हुसैन अ.स. की तालीमात को मिटाने की साज़िश
इमामबाड़े, जो कि इमाम हुसैन अ.स. की यादगार हैं, आज सरकारी बयानों और फैसलों की ज़द में आ चुके हैं। उनके खिलाफ़ बयान दिए जा रहे हैं, उनकी अहमियत को कम करने की कोशिश हो रही है, और लोगों को आपस में बांटने के लिए नई साज़िशें रची जा रही हैं। सवाल यह है कि क्या मुसलमान इस साजिश को समझने के लिए तैयार हैं?
इमामबाड़े सिर्फ़ इबादतगाह नहीं हैं, बल्कि यह कर्बला के पैग़ाम को ज़िंदा रखने की सबसे बड़ी मिसाल हैं। यह वह जगह हैं जहाँ से इंसानियत, इंसाफ़, हक़ और मज़लूमों की हिमायत की बातें होती हैं। इन पर हमला करना सिर्फ़ ईंट और पत्थर पर हमला नहीं, बल्कि एक पूरी तहज़ीब और तारीख़ को मिटाने की कोशिश है।
आज हम देख रहे हैं कि एक तरफ़ औक़ाफ़ को सरकारी कंट्रोल में लेने की साज़िश हो रही है और दूसरी तरफ़ इमामबाड़ों की अहमियत को कम करने की कोशिश की जा रही है। यह सब महज़ इत्तेफाक़ नहीं, बल्कि एक सोची-समझी चाल है, ताकि हमारी आने वाली नस्लें इमाम हुसैन अ.स. के पैग़ाम से दूर हो जाएं।
इमाम हुसैन अ.स. और मौजूदा सियासत
अगर हम मौजूदा सियासत को देखें तो पाएंगे कि आज भी ज़ालिम और मज़लूम के बीच जंग जारी है। एक तरफ़ सत्ता के भूखे हुक्मरान हैं, जो हर जायज़-नाजायज़ तरीके से अपनी ताक़त बनाए रखना चाहते हैं, और दूसरी तरफ़ वह लोग हैं जो इंसाफ़, हक़ और सच्चाई के रास्ते पर हैं।
इमाम हुसैन अ.स. ने हमें सिखाया कि जब हुकूमतें इंसाफ़ से हट जाएं, जब मज़लूमों के हक़ मारे जाएं, और जब ज़ालिम ताक़तवर बन जाए, तो खामोश रहना सबसे बड़ा गुनाह है। आज भी हमारे सामने यही हालात हैं।
सरकारें अपने मनमाने कानूनों के ज़रिये नागरिकों के हक़ छीन रही हैं, संविधान की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं, और जो लोग इसका विरोध कर रहे हैं, उन्हें देशद्रोही करार दिया जा रहा है। यह सब वैसा ही है जैसा यज़ीद ने किया था— अपनी हुकूमत को बचाने के लिए दीन और इंसाफ़ को कुचलने की कोशिश।
लेकिन इमाम हुसैन अ.स. ने हमें सिखाया कि ज़ालिम चाहे जितना ताक़तवर हो, उसका अंत तय है। इंसाफ़ और हक़ की आवाज़ को दबाया नहीं जा सकता, और इतिहास गवाह है कि जब-जब किसी हुकूमत ने अपने लोगों पर ज़ुल्म किया, वह ज़्यादा दिन नहीं टिक सकी।
क्या हम इमाम हुसैन अ.स. के सबक़ से कुछ सीखेंगे?
आज का सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या हम इमाम हुसैन अ.स. के पैग़ाम को सिर्फ़ मजलिसों और महफ़िलों तक सीमित रखेंगे, या फिर उसे अपनी ज़िन्दगी का हिस्सा बनाएंगे? क्या हम औक़ाफ़ और इमामबाड़ों के खिलाफ़ हो रही साज़िशों को समझेंगे, या फिर चुपचाप तमाशा देखते रहेंगे?
इमाम हुसैन अ.स. ने अपने खून से जो इंक़लाब पैदा किया, उसे हमें अपने जज़्बे और अपने अमल से आगे बढ़ाना होगा। अगर आज हम अपने हक़ के लिए आवाज़ नहीं उठाएंगे, तो कल हमारी आने वाली नस्लें हमें कोसेंगी।
इमाम हुसैन अ.स. की विलादत का असली जश्न यह नहीं कि हम सिर्फ़ महफ़िलें सजाएं, बल्कि असली जश्न यह होगा कि हम उनके मक़सद को जिंदा रखें, उनके पैग़ाम को फैलाएं और उनके मिशन को आगे बढ़ाएं।
आज इमाम हुसैन अ.स. की विलादत के मुबारक मौके पर हमें यह अहद करना चाहिए कि हम औक़ाफ़ को बचाने, इमामबाड़ों की हिफाज़त करने, और ज़ुल्म के खिलाफ़ डटकर खड़े रहने के लिए हर मुमकिन कोशिश करेंगे। क्योंकि हुसैनी होने का यही मतलब है— ज़ालिम के खिलाफ़ मज़लूम की आवाज़ बन जाना।
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