क़ौम के ज़वाल की वजह: इबादत की कमी या मुआमलात में बेईमानी?

निदा टीवी डेस्क/अली मुस्तफा

अगर हम अपने क़ौम के मौजूदा हालात पर नज़र डालें, तो एक बात साफ़ नज़र आती है कि हमारा समाज दिन-ब-दिन बुराइयों में डूबता जा रहा है। हर तरफ़ धोखाधड़ी, बेईमानी, रिश्वतखोरी, झूठ और मुनाफ़िक़त (दोगलापन) का दौर है। लोग नमाज़ भी पढ़ते हैं, रोज़े भी रखते हैं, हज और ज़कात का भी एहतमाम करते हैं, लेकिन फिर भी समाज में इंसाफ़, सच्चाई और अमानतदारी का नामोनिशान नहीं दिखता। सवाल ये उठता है कि क्या क़ौम के ज़वाल (पतन) की वजह इबादत में कमी है या मुआमलात में बेईमानी?

इबादत और अख़लाक़ साथ-साथ ज़रूरी हैं

इस्लाम सिर्फ़ मस्जिद में जाकर सज्दा करने का नाम नहीं है, बल्कि यह एक मुकम्मल ज़िंदगी गुज़ारने का तरीका है। इबादत का मकसद सिर्फ़ अल्लाह की बंदगी नहीं, बल्कि इंसान के अख़लाक़ को बेहतर बनाना भी है। अगर कोई इंसान नमाज़ पढ़ता हो लेकिन लोगों के साथ धोखा करे, झूठ बोले, दूसरों का हक़ मारे, तो क्या उसकी इबादत क़बूल होगी?

क़ुरआन कहता है:
"क्या तुम लोगों को नेकी का हुक्म देते हो और खुद को भूल जाते हो?"
(सूरह अल-बक़रह, 2:44)

ये आयत हमें बताती है कि सिर्फ़ नसीहत देना या इबादत करना काफ़ी नहीं है, बल्कि खुद भी नेक आमाल करना ज़रूरी है।

हदीस से सीख

रसूल अल्लाह (स) ने फरमाया:
"जो शख़्स धोखा देता है, वह हममें से नहीं।" (मुस्लिम शरीफ)

अगर हम अपने ही भाई को धोखा दे रहे हैं, नापतौल में कमी कर रहे हैं, रिश्वत लेकर फैसले कर रहे हैं, तो फिर हम कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि अल्लाह हमारी इबादत क़बूल करेगा?

हज़रत अली (अ) का फरमान (नहजुल बलाग़ा से)

हज़रत अली (अ) ने फरमाया:
"अगर किसी इंसान का किरदार अच्छा नहीं है, तो उसकी इबादत भी उसे काम नहीं देगी।" (नहजुल बलाग़ा, हिकमत 41)

ये बात बिल्कुल साफ़ है कि सिर्फ़ इबादत कर लेना काफ़ी नहीं है, बल्कि इंसान को अपने मुआमलात को भी सही करना होगा।

हमारा असली मसला: बेईमानी और मुनाफ़िक़त

आज हम इबादत तो खूब करते हैं, लेकिन हमारे अंदर दो नंबरी, धोखाधड़ी, वादा-ख़िलाफ़ी और बेईमानी मौजूद है।

  • दुकानदार ग्राहक से झूठ बोलकर सामान बेचता है।
  • लोग वादा करके उसे तोड़ देते हैं।
  • रिश्वत दिए बिना कोई काम नहीं होता।
  • लोग एक-दूसरे को नुकसान पहुँचाने का कोई मौका नहीं छोड़ते।

जब समाज इस तरह की बुराइयों में डूब जाए, तो फिर सिर्फ़ इबादत करने से हालात नहीं सुधर सकते। हमें अपने मुआमलात (व्यवहार) को भी इस्लाम के मुताबिक बनाना होगा।

अहलेबैत (अ) का पैग़ाम

इमाम जाफर सादिक़ (अ) फरमाते हैं:
"जिसके अख़लाक़ अच्छे नहीं, उसकी इबादत भी बेकार है।" (अल-काफी, जिल्द 2, हदीस 636)

इमाम हुसैन (अ) ने कर्बला में जो कुर्बानी दी, वह सिर्फ़ इबादत का सबक़ नहीं था, बल्कि इंसाफ़, अमानतदारी और सच्चाई का पैग़ाम भी था।

समाज को कैसे सुधारा जाए?

  1. सच्चाई और ईमानदारी को अपनाएं – हर हाल में सच्चाई को पकड़ें, चाहे नुकसान ही क्यों न हो।
  2. वादा पूरा करें – जो कहें, उसे निभाने की पूरी कोशिश करें।
  3. हराम से बचें – हराम कमाई कभी बरकत नहीं लाती।
  4. रिश्वत और धोखाधड़ी से दूर रहें – यह समाज को बर्बाद करने वाली सबसे बड़ी बुराई है।
  5. अख़लाक़ को बेहतर करें – इबादत के साथ-साथ अपने व्यवहार को भी इस्लामिक बनाएँ।

हमारा समाज तब तक नहीं सुधर सकता जब तक हम खुद को सुधारने की कोशिश न करें। मस्जिदों में सज्दा करने के साथ-साथ हमें अपने मुआमलात को भी सही करना होगा। झूठ, धोखाधड़ी और बेईमानी से तौबा करनी होगी। तभी अल्लाह हमारी इबादत को क़बूल करेगा और हमें दुनिया और आख़िरत में कामयाबी मिलेगी।

अल्लाह हम सबको नेक अमल करने की तौफ़ीक़ दे। आमीन!

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