अली मुस्तफा
लखनऊ, जिसे तहज़ीब का गहवारा कहा जाता है, जहाँ पान की पीक तक अदब से थूकी जाती है और गालियाँ भी इस अंदाज़ में दी जाती हैं कि सुनने वाले को शेरो-शायरी का एहसास होने लगे। लेकिन इस तहज़ीब के दामन में एक अनोखी नेमत भी छुपी है—नेगेटिविटी! जी हाँ, यहाँ ग़ीबत, हसद, जलन और एक-दूसरे को गिराने का हुनर भी तहज़ीबी लिबास ओढ़े रहता है।
अब देखिए, यह शहर फूलों का भी आशिक़ है और कांटों का भी। यहाँ अगर कोई बुलंदी पर पहुँच जाए तो उसकी शान में कसीदे नहीं पढ़े जाते, बल्कि उसके कदमों में बिछी सीढ़ियों को हटाने का इंतेज़ाम किया जाता है। भाई, यह तहज़ीब है! कोई अपनी मेहनत से आगे बढ़ जाए तो सबक़ देने के लिए पूरी महफ़िल तैयार हो जाती है। क्यूँकि यहाँ लोगों को ताली बजाने से ज़्यादा मज़ा सीटी बजाने में आता है—वो भी पीठ पीछे।
ग़ीबत: चाय के साथ मुफ़्त का नाश्ता
लखनऊ की गालियों से लेकर नवाबी बैठकों तक, ग़ीबत एक ऐसी रवायत है जो सोंधे कुल्हड़ की चाय से भी ज़्यादा गरम और मसालेदार होती है। एक चाय की प्याली के साथ, किसी शरीफ़ आदमी को बदनाम करने की जितनी कहानियाँ गढ़ी जाती हैं, उतनी तो किसी उर्दू अफ़साने में भी नहीं मिलेंगी। यहाँ की ग़ीबत में भी शेरो-शायरी का टच होता है—
"अमाँ, वो जो साहब हैं न, बड़े शरीफ़ बनते हैं, मगर असल में उनका किरदार किसी पुराने नवाबी ज़मींदार जैसा है!"
हसद और जलन: लखनऊ का मिज़ाज
यहाँ अगर कोई शख़्स मेहनत से कुछ हासिल कर ले तो उस पर वाह-वाह से ज़्यादा, "देखें कब तक चलता है!" टाइप की दुआएं भेजी जाती हैं। अगर किसी के पास नई गाड़ी आ गई, या उसने अपना कारोबार बढ़ा लिया, तो यह ख़बर शहर के हर नुक्कड़ पर ऐसे फैलाई जाएगी मानो किसी मुग़लिया सल्तनत का तख़्तापलट हो गया हो।
"अमाँ, ख़ुद तो कुछ किया नहीं, अब दूसरों की कामयाबी से चिढ़ रहे हैं!" यही जुमला अक्सर सफ़ाई देने के लिए इस्तेमाल किया जाता है।
भौंरों का अंदाज़: चर्चा का नया आयाम
लखनऊ में फूल सिर्फ़ बाग़ों में नहीं खिलते, बल्कि कामयाबी की महफ़िलों में भी महकते हैं। और जहाँ फूल होंगे, वहाँ भौंरों की मंडली भी होगी। मगर ये भौंरे सिर्फ़ गुनगुनाने तक महदूद नहीं रहते, बल्कि जिस शाख़ पर बैठते हैं, उसे हिला भी देते हैं। हर कामयाब आदमी के इर्द-गिर्द ऐसे भौंरे ज़रूर मंडराते हैं, जो मीठी बातें करने में माहिर होते हैं लेकिन अंदर से रूह तक चूस लेने का हुनर भी रखते हैं।
लखनऊ का 'अदब' और नेगेटिविटी का इश्क़
यहाँ हर बात को तहज़ीब के धागे में पिरोकर पेश किया जाता है। अगर किसी को बर्बाद करना हो तो सीधे हमला नहीं किया जाएगा, बल्कि अदब के साथ ऐसा जाल बुना जाएगा कि बेचारा ख़ुद ही अपनी गर्दन फँसा बैठे।
जैसे किसी को नीचा दिखाना हो तो कहा जाएगा,
"भाई, बड़े क़ाबिल इंसान हैं, मगर बस थोड़े मासूम हैं, हर किसी की बात पर यक़ीन कर लेते हैं!"
अब बेचारा ख़ुद ही सोचे कि तारीफ़ हो रही है या तौहीन
लखनऊ में तहज़ीब सिर्फ़ ज़बान तक महदूद नहीं, बल्कि चालाकियों और साजिशों में भी तहज़ीब का ख़ास अन्दाज़ झलकता है। यहाँ तारीफ़ भी ऐसे की जाती है कि बन्दा शर्मिंदा हो जाए और तंकीद (आलोचना) भी इतनी शाइस्तगी से की जाती है कि सामने वाला तस्बीह घुमा कर "सुभानअल्लाह!" कहने पर मजबूर हो जाए।
तो जनाब, लखनऊ सिर्फ़ चिकनकारी, कबाब और शेरो-शायरी के लिए ही मशहूर नहीं, बल्कि यहाँ के 'अदबी नकारात्मकता' का भी अपना ही लुत्फ़ है। यहाँ की नेगेटिविटी भी नवाबी ठाठ में लिपटी हुई होती है, जो हर नुक्कड़, हर चौक और हर महफ़िल में चाय के प्याले के साथ घूँट-घूँट पी जाती है। अब आप ही बताइए, ऐसी तहज़ीब को सलाम करें या इससे बचकर निकलें?
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