क़ाज़ी ज़फ़र मेहदी साहब ने दयाए अजल को लब्बैक कहा…आज़ादारी और वक्फ बचाओ तहरीक के बेबाक सिपाही, आफ़ताब-ए-शरीअत मौलाना डॉ. कल्बे जवाद नक़वी साहब के हक के साथ— अब हमेशा के लिए ख़ामोश, मगर उनकी आवाज़ आज भी गूंज रही है


लखनऊ, जुमेरात (निदा टीवी डेस्क):
आज लखनऊ की फ़िज़ाओं में एक अजीब ख़ामोशी है।
ट्रॉमा सेंटर के कमरे में वो रूहानी चेहरा अब नहीं है जो हर सांस के साथ हक़, सब्र और मोहब्बत-ए-अहलेबैत की तालीम दे रहा था।
क़ाज़ी ज़फ़र मेहदी इब्ने क़ाज़ी मोहम्मद मेहदी साहब आज सुबह दयाए अजल को लब्बैक कहकर, अपने रब से जा मिले।
वो चले गए — मगर अपने पीछे वो दीया छोड़ गए जो हर दीनी दिल को रोशन करता रहेगा।

🕯️ “मौलाना कल्बे जवाद साहब की राह ही हक़ की राह है” — आख़िरी अल्फ़ाज़

बीमारी के आख़िरी लम्हों तक भी उनके होंठों पर आफ़ताब-ए-शरीअत मौलाना डॉ. कल्बे जवाद नक़वी साहब का नाम था।
वेंटिलेटर पर जाने से कुछ ही घंटे पहले उन्होंने अपने बेटों से कहा था —

“मैं बेख़ौफ़ हूँ, क्योंकि मैं मौलाना कल्बे जवाद साहब की तहरीक़ का हिस्सा हूँ।
यही हक़ की राह है, यही अहलेबैत की मोहब्बत की पहचान है।”

ये उनके आख़िरी लफ़्ज़ थे — जो अब हर मोमिन के दिल में अमर हैं।

रुख़्सत की तड़प… और बेटों की आँखों में बारिश

जब सुबह-सुबह इंतिक़ाल की खबर आई, तो ट्रॉमा सेंटर की दीवारों तक रो पड़ीं।
समर मेहदी, असद मेहदी (सैफ़ी) और जाफ़र मेहदी (कैफ़ी) के चेहरों पर सब्र भी था और एक बाप की मोहब्बत का बोझ भी।
रिश्तेदार और चाहने वाले जब पहुँचे तो बस एक ही सवाल हवा में था —

“क्या वाक़ई क़ाज़ी साहब अब नहीं रहे?”
हर दिल से एक आह निकली — “इनना लिल्लाहे वा इन्ना इलैहे राजेऊन।”

🌙 एक ज़िंदगी जो इमामत के लिए जी गई

क़ाज़ी ज़फ़र मेहदी साहब का तआल्लुक़ सुल्तानपुर के मोजिज़ क़ाज़ी खानदान से था —
जहां इल्म, अख़लाक़ और दीनी खिदमत विरासत की तरह चली आ रही है।
उन्होंने अपनी ज़िंदगी का हर पल आज़ादारी मूवमेंट, वक्फ बचाओ मिशन, और अब्बास बाग़ करबला के हक़ के लिए समर्पित किया।
कभी डर नहीं खाया, कभी झुके नहीं।
उनका ईमान, उनका जज़्बा, और उनकी जुबान हमेशा हक़ और इमामत की आवाज़ बनी रही।

वो कहा करते थे —

“इमाम-ए-मेहदी (अ.फ.) का इंतज़ार सिर्फ़ लफ़्ज़ नहीं, अमल है… और अमल वही है जो हक़ की राह पर क़दम रखे।”

🌹 आख़िरी सफ़र

उनका जनाज़ा आज जुमेरात  दोपहर 3 बजे, मलका जहाँ करबला ऐशबाग़, लखनऊ में उठेगा।
वहीं उनकी तदफ़ीन होगी, वहीं वो मिट्टी में मिल जाएंगे,
मगर उनकी महक इस शहर की रूह में हमेशा बाक़ी रहेगी।

सभी मोमिनीन से सुराए फातिहा और नमाज़-ए-वहशत की इल्तिज़ा है —

“इलाही, इस वफ़ादार बंदे को अहलेबैत के दामन में जगह अता फरमा।”

🕊️ लोगों की आँखों से बोले एहसास

कई सामाजिक और मज़हबी हस्तियाँ अस्पताल और घर पहुँचीं —
🔹 अंजुमन वजीफ़ा-ए-सादात के जमानत अली साहब,
🔹 अंबर फाउंडेशन के अध्यक्ष वफ़ा अब्बास, तहलका टुडे के एडिटर सैयद रिज़वान मुस्तफ़ा,

🔹  नकी हैदर नदीम,
🔹 समाजसेवी अली आग़ा,
🔹 एडवोकेट शाहज़ाद अब्बास,
🔹 पूर्व गवर्नर सैयद अहमद साहब के भांजे डॉ. सैयद ज़ुलक़रनैन,
🔹 डॉ. दिलशाद, और प्रोफेसर अब्बास रज़ा साहब ने कहा —

“क़ाज़ी साहब जैसे लोग मरते नहीं, वो तहरीक बन जाते हैं।”

 इमामत के सच्चे मुंतज़िर की रुख़्सत

क़ाज़ी ज़फ़र मेहदी साहब उन लोगों में से थे जो इमाम-ए-मेहदी (अ.फ.) के ज़हूर के मुंतज़िर बनकर जिए और उसी इंतज़ार में दुनिया से रुख़्सत हुए।
उनकी ज़िंदगी ने ये साबित किया कि इंतज़ार का मतलब बैठना नहीं,
बल्कि हक़ की हिमायत में सीना तानकर खड़ा रहना है।

“रुख़्सत हो गए क़ाज़ी ज़फ़र मेहदी साहब…
वो जो इमामत के सिपाही थे, हक़ के रखवाले थे,
जिनकी जुबान पर आख़िरी सांस तक था — इमाम ए जमाना का इंतजार और ‘कल्बे जवाद की राह ही हक़ की राह है।’
आज तदफ़ीन मलका जहाँ करबला ऐशबाग़ में 3 बजे होगी।
सुराए फातिहा और नमाज़-ए-वहशत की इल्तिज़ा।”

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