अज़ा पर ख़र्च करते हैं मगर ज़ाहिर नहीं करते,छिछोरापन नहीं होता शरीफों के घरानों में" ,ग़म या ग्लैमर?"लखनऊ में अंजुमन नसीरुल अज़ा की 150वीं शब्बेदारी के दौर पर लोगो को अवार्ड और रोस्टेड मुर्गा: क्या यही है करबला की याद?


✍️ रिपोर्ट: रिज़वान मुस्तफा

"करबला में लाशें थीं, यहां शब्बेदारी में चमकते अवार्ड — हुसैनी ग़म में भी अब है इवेंट मैनेजमेंट का राज!"


लखनऊ की मशहूर अंजुमन नसीरुल अज़ा ने इस साल अपनी 150वीं शब्बेदारी मनाई। सुनने में आया कि यह "एतिहासिक" कार्यक्रम है — लेकिन जब परदे हटा कर हक़ीक़त देखी गई, तो करबला का ग़म एक ग्लैमरस तमाशे में तब्दील नजर आया।

🎭 शब्बेदारी या शोबाज़ी?

इस तथाकथित शब्बेदारी में:

  • अवार्ड वितरण
  • बैनर-बत्ती-LED स्क्रीन
  • शायरी मजलिसो  में नारेबाज़ी की गूंज
  • ✅ और सबसे शर्मनाक —खाने  में रोस्टेड चिकन और मुर्गा बिरयानी

ग़म-ए-हुसैन के नाम पर आयोजित यह शब्बे दारी एक ऐसे इवेंट में बदल गई जिसमें सादगी, इख़लास, और दर्द की कोई जगह नहीं थी — बस कैमरा, खुदुनमाई, और पब्लिसिटी थी।


😱 जब मौलाना 'मुबारकबाद' देने लगे...

कर्बला के शहीदों की याद में होने वाली प्रोग्राम में कुछ मौलानाओं ने आयोजकों को “मुबारकबाद” दी — वो भी मंच से, माइक पर, मुस्कराते हुए।

क्या यह वही प्रोग्राम है जहाँ जनाबे ज़ैनब (स.) ने सिर झुका लिया होगा?
क्या शहादत के प्रोग्राम  में मुबारकबाद दी जाती है?
क्या ग़म में वाह वाही की गूंज शरीअत से मेल खाती है?


🔍 रफीकुल हसन: शब्बेदारी की आड़ में दामन धोने वाले शरीफ ?

इस पूरे आयोजन के पीछे जिनका नाम सबसे अधिक लिया जा रहा है, वह हैं —
रफीकुल हसन साहब:

  • 🎭 मूर्तद (शरई रूप से धर्मत्यागी) के करीबी माने जाते हैं
  • 🏚️ शिया वक्फ़ बोर्ड की बर्बादी में संलिप्तता के आरोप
  • 🕋 दरगाह हज़रत अब्बास अलमदार के पूर्व जिम्मेदार रहे, कई विवादों में रहे बदनाम

अब जब दामन दाग़दार है, तो शायद यह "इमाम हुसैन की याद" नहीं, बल्कि Public Image Makeover की कोशिश थी — जैसे ग़म की चादर ओढ़कर खुद को पाक-साफ़ दिखाने का एक मंच तैयार किया गया हो।


🕌 शरीअत और अहलेबैत की तालीमात क्या कहती हैं?

📖 कुरआन:

"वो लोग जो दिखावे के लिए काम करते हैं, उनके लिए आख़िरत में कुछ भी नहीं है।" — (सूरह माऊन)

📚 नहजुल बलाग़ा:

"जो लोग दुनिया की वाहवाही में ग़र्क़ हैं, वो अपने गुनाहों को भी नेकियों में ढालने का धोखा खाते हैं।"

🕊️ इमामे ज़माना (अज):
क्या हम वाकई सच्चे इंतज़ार करने वाले हैं, जब हम उनके जद के ग़म को बुफ़े, ब्रांडिंग और बिरयानी में डुबो दें?


🍗 ‘रोस्टेड चिकन’ — कर्बला की कैटरिंग?

जब इमाम हुसैन (अ) के लश्कर ने तीन दिन की प्यास में शहादत दी,
जब बच्चों के हलक़ सूख गए और मांओं ने दूध खुश्क हो गए,  लहू बहा,
तो क्या उनकी याद में ' रोस्टेड मुर्गा बिरयानी' परोसना जायज़ है?

ये क्या है?

इबादत का बहाना या इवेंट इंडस्ट्री का नया मजलिस और  शब्बेदारी में नया ट्रेंड ?


🤐 कर्बला के नाम पर तालीमात का तिरस्कार

कर्बला सिखाती है:

  • हक़ बनाम बातिल में फ़र्क़
  • शहादत की मौत और हया की ज़िंदगी
  • त्याग, इख़लास और बंदगी का पैग़ाम

और यहाँ:

  • 🏆 मंच, पुरस्कार, लाइमलाइट
  • 📸 कैमरे, इंस्टा स्टोरी, सेल्फी विद मौलाना
  • 🍽️ डिनर पार्टी और प्रायोजक बैनर
  • बड़े बड़े अवार्ड,और इनविटेशन कार्ड

ये मजलिस है या महफिल ? ये मातम है या मेला?


⚠️ समाज के लिए एक जलता हुआ आईना

अगर हम हुसैनी ग़म को भी अपनी शोहरत, सियासत और सफाई का ज़रिया बना लें —
तो फिर बातिल और हक़ में क्या रह जाएगा?

अगर नाम हुसैन का हो और मंशा यज़ीद जैसी —
तो फिर क्या करबला सिर्फ 61 हिजरी की एक जंग थी?


🕯️ क्या आज भी यज़ीद जिंदा है?

हाँ!
हर वो शख़्स जो ग़म को तमाशा बना दे —
हर वो मजलिस जो पब्लिसिटी स्टंट में बदल जाए —
हर वो आवाज़ जो ग़म की जगह तालियों में डूब जाए —
वो यज़ीद की एक सोच है।


🩸 अहलेबैंत आएं तो क्या देखा  ...?

  • क्या हजरत फातिमा जहरा और इमाम अली (अ) इस प्रोग्राम को देख कर लखनऊ पर अफसोस किया  हों?
  • क्या जनाबे ज़ैनब (स.) उस प्रोग्राम में बैठेंगी जहां उनके भाई के नाम पर लज़ीज़ खाने खाया जा रहा हो?
  • क्या इमामे ज़माना (अज) उस जगह में तशरीफ लाएंगे जहां यज़ीदी सोच को हुसैनी चादर से ढका गया हो?

नहीं...
बल्कि वो कहेंगे:
"क्या तुमने इमाम हुसैन के नाम पर क्या किया?


🌑  करबला

जब इमाम हुसैन (अ) का सिर भाले पर था —
जनाबे ज़ैनब (स.)  सिर्फ़ रोईं...

और आज...
हम उसी ग़म को डेकोरेशन, कैटरिंग और सोशल मीडिया रीच में बदल चुके हैं।


अगर वाकई हुसैनी हो तो...

  • रोओ, इमाम की शहादत पर 
  • मजलिस शाब्बेदरी करो, लेकिन ईमान से
  • ग़म मनाओ, लेकिन दिखावे से नहीं
  • नाम मत बेचो, नाना  के नवासे की क़ुर्बानी को मत भुनाओ
  • और अगर करबला की याद मनानी है — तो खुद को बदलो, माहौल नहीं

"हुसैनी बनो, मगर दिल से —
वरना कल जब इमामे ज़माना आएंगे,
तो पूछेंगे नहीं...
पहचानेंगे नहीं।"


यह लेख सिर्फ़ आलोचना नहीं, आत्ममंथन के लिए है।
जिन्हें हुसैन (अ) से मोहब्बत है — उन्हें खुद से सवाल करना चाहिए कि क्या हम हुसैनी हैं… या सिर्फ़ कहने वाले शिया?

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