आधुनिक कर्बला: मिसाइलों के बीच इंकलाब की आवाज़"ईरान आज अकेला नहीं — वो हुसैन की परछाईं है, जो फिर एक बार ज़ालिमों के बीच सर उठाए खड़ा है, और कह रहा है: 'हम हक़ पर हैं!

"आधुनिक कर्बला: मिसाइलों के बीच इंकलाब की आवाज़"
ईरान आज अकेला नहीं — वो हुसैन की परछाईं है, जो फिर एक बार ज़ालिमों के बीच सर उठाए खड़ा है, और कह रहा है: 'हम हक़ पर हैं!

(जब हुसैनी मशाल फिर से जल उठी — और ज़ुल्म के अंधेरे में सच्चाई की रोशनी चमकी)

1. ज़ुल्म के सामने सिर न झुकाने की हिम्मत

कर्बला (680 ई.):
जब यज़ीद ने बैअत का फरमान भेजा, तो इमाम हुसैन (अ.स.) ने जवाब में अपना लहू पेश कर दिया। उन्होंने कह दिया — "मौत इज़्ज़त से बेहतर है, बनिस्बत ज़ुल्म के आगे झुकने के।"
उनके पास 72 जानें थीं, और सामने था 30 हज़ार का लश्कर। मगर हुसैन (अ.स.) जानते थे, सच अकेला होता है, मगर झुकता नहीं।

आज (2025):
ईरान आज उसी हुसैनी रास्ते पर है। आयतुल्लाह खामेनई की क़ियादत में ये मुल्क अमेरिका और इज़राइल की तानाशाही को ठुकरा रहा है। उन्हें भी बार-बार धमकी दी जाती है — "सर झुकाओ, वर्ना मिटा दिए जाओगे।"
मगर जवाब वही है — "हम मिट सकते हैं, मगर बिकेंगे नहीं।"

 "जब ज़ुल्म तुम्हें झुकने पर मजबूर करे, तो उठ खड़े हो जाओ — यही हुसैनी रास्ता है।"

2. कूफ़ा की ग़द्दारी से आज की उम्मत की ख़ामोशी तक

तब:
कूफ़ा वालों ने इमाम को खत लिखे, उन्हें बुलाया, वादे किए... और जब वक़्त आया, तो यज़ीद के लश्कर में जा मिले।
72 के कारवां को चारों ओर से घेर लिया गया — ना पानी, ना रहम, सिर्फ़ नफ़रत और तीर।

अब:
ईरान को भी मुस्लिम मुल्कों ने अकेला छोड़ दिया है। जिनके पैगंबर ने कहा था कि "हर मुसलमान, हर मुसलमान का भाई है," वही आज अमेरिका के तंबू में बैठे हैं।
क़तर, सऊदी अरब, यूएई — सब ने ज़ुल्म को खामोशी से देखा... कुछ ने तो उसके हाथ मज़बूत भी किए।

> "कर्बला हर दौर में दोहराई जाती है, फ़र्क सिर्फ इतना है कि लिबास बदल जाते हैं, चहरे वही रहते हैं।"

3. आज के शिम्र कौन हैं?

तब:
शिम्र का नाम आज भी बददुआ के साथ लिया जाता है। उसने हुसैन का सर कलम किया, और सोचा — "ख़त्म हो गया।"

अब:
क़ासिम सुलेमानी की शहादत... एक नई कर्बला थी। ड्रोन से कत्ल हुआ, साज़िशों से जंग हुई, और ईरान को झुकाने की कोशिशें तेज़ हो गईं।

मगर ये भूल गए कि हुसैनी लहू से न सिर्फ़ ज़मीन लाल होती है, बल्कि हर गिरा हुआ इंसान उठ खड़ा होता है।

"तलवारें मिट जाती हैं, मगर शहीदों की सदा सदियों तक गूंजती रहती है।"

4. मज़लूम की आह और ज़ालिम की तबाही

तब:
हुसैन (अ.स.) की लाश रौंद दी गई, बच्चे भूख से तड़पे, और ज़ैनब (स.अ.) की चादरें छीन ली गईं। मगर उसी कर्बला से इंकलाब उठा।

अब:
अगर कल ईरान पर हमला हुआ — और अगर क़यादत शहीद हो गई — तो समझ लो, कर्बला फिर से दोहराई जाएगी, और इस बार हुसैनी कारवां अरब की रेत तक नहीं, बल्कि दुनिया के हर कोने में गूंजेगा।

हिज़्बुल्लाह, यमन, ग़ज़ा — सब ज़ुल्म की ईंट से ईंट बजा देंगे।
क्योंकि...
 "हुसैनी मरते नहीं — वो हर दौर में जन्म लेते हैं।"

5. हुसैनी होना क्या है?

हुसैनी होना सिर्फ़ मातम करना नहीं।
हुसैनी होना है —

ज़ालिम के आगे ना झुकना

मज़लूम के लिए आवाज़ बनना

हक़ के लिए हर कुर्बानी देने को तैयार रहना

अगर आज भी तुम चुप हो, तो सोचो —
क्या तुम कूफ़ा वालों में हो, या हुसैन वालों में?
क्या तुम यज़ीद के दरबार में बैठे हो, या ज़ैनब के खुत्बे में शामिल हो?

"हुसैन आज भी आवाज़ दे रहे हैं —  हल मिन्ना नासिरं यंसरुना?'
क्या कोई है जो मेरी मदद को आए?"

आज ईरान सिर्फ़ एक देश नहीं, एक निशान है —
इंसाफ़ का, उसूल का, और हुसैनी जज़्बे का।

और अमेरिका-इज़राइल सिर्फ़ दो देश नहीं,
बल्कि आधुनिक यज़ीद हैं — जो हर दौर में इंसाफ़ को मिटाने निकलते हैं।

मगर याद रखो —

यज़ीद की सल्तनत दो साल भी न चली।

हुसैन की शहादत 1400 साल से दिलों में ज़िंदा है।

"अगर तुम ज़ालिम के साथ हो, तो तुम यज़ीदी हो।
अगर तुम मज़लूम के साथ हो, तो तुम हुसैनी हो।
अब फैसला तुम्हें करना है..."

🌑 कर्बला आज भी जिंदा है।
हर जमीर को आज फिर हुसैन की तरह खड़ा होना है।
या तुम हक़ के साथ हो — या फिर हाकिम के तलवे चाटने वालों में।

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