🕯️ "मुबाहेला: मैदान में उतरने की ईद – और हम सोशल मीडिया की दीवारों के पीछे!"


✍️ By: हसनैन मुस्तफा


🔹जब सच्चाई पर ईद मनाई जाती है

हर ईद खुशी का पैग़ाम लेकर आती है। मगर ईद-ए-मुबाहेला सिर्फ खुशी नहीं, बल्कि हक़ और बातिल के बीच खींची गई एक ऐतिहासिक सरहद की याद है। यह वह दिन है जब इस्लाम की असल रूह — एहले बैत (अ.) — सच्चाई की गवाही बनकर एक पूरी कौम के सामने खड़ी हुई और अल्लाह ने हक़ को जीत दिलाई।

 सवाल यह है कि:
"क्या आज का मुसलमान उस हक़ को पहचान रहा है? क्या हम मुबाहेला के पैग़ाम पर अमल कर रहे हैं?"

मगर अफ़सोस! आज का मुसलमान मुबाहेला की इस रूह से कोसों दूर खड़ा है।
हमने मैदान छोड़कर मोबाइल, स्टेटस, रील और लाइक्स की दीवारों के पीछे पनाह ले ली है।
कभी खामोश हैं, कभी समझौतावादी, और कभी सिर्फ़ ऑनलाइन क्रांतिकारी।

🔻 आज के मुसलमान की हालत:

1. हक़ के लिए आवाज़? नहीं, मैं तो न्यूट्रल हूँ।
जब भी ज़ुल्म होता है — चाहे वह फ़िलिस्तीन में हो, कर्बला में हो, या आज किसी मोहल्ले में — तो हम कहते हैं:
"मैं किसी के खिलाफ़ नहीं बोलता, मैं तो अमन चाहता हूँ।"

लेकिन याद रखिए:
जो हक़ के साथ नहीं, वो बातिल के साथ है — चाहे वो चुप ही क्यों ना हो।

2. सोशल मीडिया क्रांति – बिना वुज़ू, बिना असर:
हम हज़ारों पोस्ट शेयर करते हैं, डीपी बदलते हैं, लेकिन जब मस्जिद में, मोहल्ले में या समाज में कोई ज़ालिम बोलता है — तो हम खामोश रहते हैं।
मुबाहेला सिखाता है: "मसला सिर्फ कहना नहीं, मैदान में आना है!"

3. इबादत की जगह दिखावा, अमल की जगह दलील:
आज के मुसलमान ने मुबाहेला को दर्स नहीं, डिबेट बना दिया है।
वो अपने बच्चों को हसन और हुसैन के नाम तो देता है, मगर उन्हें हिम्मत, सच्चाई और कुरबानी नहीं सिखाता।

🔻 मुबाहेला का असली पैग़ाम: आज की दुनिया के लिए

1. सच्चाई के लिए खड़े होना – बिना शर्त, बिना डर:
मुबाहेला वो दिन था जब एहले बैत (अ.) ने कहा: अगर हम सच्चे हैं, तो झूठ की बुनियाद हिल जाएगी।

आज जब मीडिया बिक चुकी है, जब हक़ कहने वालों को आतंकवादी बना दिया जाता है, जब सच बोलना नौकरी और जान के लिए ख़तरा बन गया है — तब क्या हम मुबाहेला की रूह को ज़िंदा कर सकते हैं?

2. धर्म के नाम पर हो रही सियासत का पर्दाफाश:
आज धर्म को नफरत, साज़िश और सत्ता का औज़ार बना दिया गया है।
मुसलमान का फर्ज़ है कि वो केवल मुसलमानों की ही नहीं, बल्कि हर मज़लूम की आवाज़ बने।

मुबाहेला यही कहता है — झूठ चाहे किसी मज़हब में हो, उसका विरोध करो।

3. आगाह रहो: जो खामोश हैं, कल उनके घर आएगा तूफान:
आज जो समझ रहे हैं कि हमें क्या फर्क पड़ता है — जान लें कि जब सच कुचला जाता है और हम कुछ नहीं करते, तो अगला नंबर हमारा होता है।

🔹 ईद-ए-मुबाहेला: तारीख़ी पृष्ठभूमि और सबक

24 ज़िल्हिज्जा को रसूल (स.अ.) ने जब नजरान के ईसाइयों से बहस के बाद मुबाहेला की पेशकश की, तो अल्लाह ने यह हुक्म दिया:

"आओ हम अपने बेटों को, अपनी औरतों को और अपने नफ़्सों को लाएँ..." (आले इमरान: 61)

रसूल (स.अ.) ने अपने साथ:

  • बेटे: हसन (अ.) और हुसैन (अ.)
  • औरत: फ़ातिमा (स.अ.)
  • नफ़्स: अली (अ.)
    को लेकर मैदान-ए-मुबाहेला में क़दम रखा।

ईसाई डर गए — क्योंकि उन्होंने चेहरों पर नूर और सच्चाई की ताक़त देखी। यह इस्लाम की जीत थी — दलील से, किरदार से और इलाही हिम्मत से।


🔹 आज का मुसलमान: मुबाहेला की अजमत से कितना वाक़िफ़ है?

आज जब हम 21वीं सदी के मुसलमान की हालत देखें, तो यह सवाल सीधा दिल में चुभता है कि:

क्या हम मुबाहेला के पैग़ाम के वफ़ादार हैं या सिर्फ रस्म अदायगी में उलझे हुए हैं?

  • मुबाहेला हक़ के लिए लड़ने की ईद है, और हम आज हक़ बोलने से डरते हैं।
  • मुबाहेला कुर्बानी और इख़लास की मिसाल है, और हम नाम, सोशल मीडिया और सत्ता की लालच में उलझे हैं।
  • एहले बैत (अ.) ने बातिल के सामने खड़ा होने की ताक़त दी, मगर हम आज ज़ालिमों के साथ खड़े होने में शर्म महसूस नहीं करते।

🔹 आज के हालात: क्या फिर से एक मुबाहेला की ज़रूरत है?

  • जब मीडिया झूठ को सच बना दे,
  • जब नफ़रत मज़हब बन जाए,
  • जब मस्जिदें सियासत की गूँज से लरज़ उठें,
  • जब इल्म को फतवों से दबा दिया जाए,
  • जब हक़ बोलने वाले ग़द्दार कहलाएँ...

...तब समझो कि वक्त फिर से कह रहा है:
"मुसलमानो! तुम्हें फिर से मुबाहेला की रूह अपनानी होगी!"


🔹 आज क्या करें? — अमल और इबादत की रोशनी में

📿 अमल:

  • ग़ुस्ल, दो रकात नमाज़ (हर रकात में 10 बार सूरह इख़लास)
  • दुआ-ए-मुबाहेला और ज़ियारत-ए-जामिआ पढ़ें
  • हक़ के लिए खड़े होने का अहद लें

🕯 इबादत:

  • अपने दिल का ताजिया करें: क्या हम हक़पसंद हैं?
  • समाज में नाइंसाफ़ी और फसाद के खिलाफ आवाज़ उठाएं
  • बच्चों को एहले बैत की मोहब्बत और बहादुरी सिखाएँ

🔹 एक आईना आज के लिए:

"अगर आज रसूल (स.अ.) मुबाहेला के लिए निकलें, तो क्या हम उस कारवां में शामिल होने के क़ाबिल हैं?"

क्या हमारी सोच, हमारी ज़बान, हमारी जिंदगी हक़ की तर्जुमान है?
या हम नज़रान के ईसाइयों की तरह सिर्फ तमाशबीन बन कर रह गए हैं?


🔹पैग़ाम

ईद-ए-मुबाहेला सिर्फ एक तारीख नहीं, यह जागने का दिन है।
आज जब दुनियावी ताक़तें झूठ और फ़रेब के सहारे मज़हब को बदनाम कर रही हैं, तो मुसलमानों को चाहिए कि वे:

  • अपने किरदार को पाक रखें
  • मज़लूमों के साथ खड़े हों
  • हक़ की राह पर सब्र और हिम्मत से चलें
  • एहले बैत के नक़्श-ए-क़दम को ज़िंदा रखें

"मुसलमान वो नहीं जो सिर्फ कहे 'अल्लाहु अकबर', मुसलमान वो है जो ज़ालिम के सामने 'हक़ अकबर' कहे और झुके नहीं।"


ईद-ए-मुबाहेला की मुबारकबाद — दुआ है कि अल्लाह हमें इस ईद का सही मतलब समझने और उस पर अमल करने की तौफ़ीक़ दे।

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