ज़ुल्म की आग में फिर जला एक हुसैन — अहलेबैत का वंशज बना कश्मीर की वादी में अमन का शहीद— करबला की विरासत आज भी जिंदा है, और हुसैन फिर शहीद हुआ..,."जिसने यज़ीदी फितरत को ललकारा, हजारों की जान बचाई वही आज हुसैन कहलाया"


जम्मू-कश्मीर के पहलगाम की हसीन वादियों में मंगलवार को उस वक़्त कोहराम मच गया जब आतंक के सौदागरों ने बैसरन के खुले मैदान को खून से लाल कर दिया। धर्म पूछ-पूछकर पर्यटकों को मारने की इस यज़ीदी सोच के बीच एक चेहरा खड़ा हुआ — सैयद हुसैन शाह। वह न कोई सैनिक था, न पुलिसकर्मी — एक सादा इंसान, जो घोड़े की सवारी कराकर लोगों को मुस्कुराहट बांटता था। लेकिन जब ज़ुल्म सामने आया, तो उसने चुप्पी नहीं ओढ़ी। वो अहलेबैत की उस रग का वारिस था, जिसमें इमाम हुसैन की जुरअत बहती है।

सैयद हुसैन शाह — एक नाम जो अब बहादुरी का पर्याय है।
अशमुकाम का रहने वाला यह साधारण कश्मीरी, जो पर्यटकों के लिए घोड़े की सवारी कराकर अपनी रोजी कमाता था, उस रोज़ बैसरन में सैकड़ों सैलानियों के साथ मौजूद था। जब आतंकियों ने हमला किया और एक-एक कर लोगों से धर्म पूछकर गोलियां बरसाईं, तब सैयद हुसैन शाह तड़प उठा। वह कैसे सह लेता? वह उस धरती का बेटा था, जिसने हमेशा कश्मीरियत, इंसानियत और मेहमाननवाज़ी को जिया।

उसने आतंकियों से कहा:
"ये हमारे मेहमान हैं, इनका मज़हब नहीं देखना चाहिए। ये बेगुनाह हैं।"

मगर आतंकी कहां इंसानियत समझते हैं? उन्होंने उसे धक्का दिया, मगर वह पीछे नहीं हटा। जब लफ़्ज़ बेअसर हुए, तो उसने एक आतंकी से भिड़कर उसकी राइफल छीनने की कोशिश की। और वहीं, आतंक की उस नापाक बंदूक से निकली गोलियों ने उसके सीने को छलनी कर दिया। वो ज़मीन पर गिर पड़ा — लेकिन अपनी जान देकर वो दर्जनों जानें बचा गया।

सैयद हुसैन शाह अब सिर्फ एक नाम नहीं, एक पैग़ाम है।
प्रत्यक्षदर्शियों ने कहा, "अगर वह न होता, तो शायद कोई नहीं बचता।" उसके साथी बिलाल ने बताया कि वह चाहता तो भाग सकता था, मगर उसने जौहर दिखाया। उसने करबला के उस अलम को थामा, जहाँ जान देना आसान था, मगर ज़ुल्म से समझौता करना नामुमकिन।

सरकारें, सेना, सुरक्षा तंत्र — सब खामोश रह गए।
सैकड़ों सुरक्षाकर्मियों की मौजूदगी, तमाम दावा और यकीनों के बावजूद जब गोली चली तो एक आम कश्मीरी, एक सैयद, एक हुसैन ही आगे आया। सवाल यह है कि जब खतरे का अंदेशा था, तो आम नागरिकों को, पर्यटकों को बैसरन भेजने की इजाज़त किस आधार पर दी गई? और अब इस शहादत को भी धर्म की चादर में क्यों लपेटा जा रहा है?

यह करबला ही तो है...!
बस यज़ीद का नाम बदला है, वादी बदल गई है, और कर्बला के मैदान की जगह बैसरन आ गया है। लेकिन हुसैन वही है — बेबाक, बहादुर, और ज़ुल्म के सामने सीना तानकर खड़ा। और उसकी शहादत हमें यह याद दिलाने आई है कि यज़ीदी सोच आज भी ज़िंदा है, और हर दौर में कोई न कोई हुसैन कुर्बान होता है।

एक आख़िरी सवाल:
जब आतंकवादी मज़हब देखकर मार रहे थे — तो "एक सैयद, एक हुसैन को क्यों मारा गया?"
क्योंकि सैयद हुसैन शाह का मज़हब इंसानियत था। वह मुसलमान होकर भी ज़ुल्म के खिलाफ खड़ा हुआ, और इंसानियत के लिए मर मिटा। इसलिए सरकार की बातों में मत उलझिए — सवाल उठाइए, ज़बान खोलिए, और याद रखिए:

"करबला सिर्फ एक घटना नहीं थी, वह एक इंकलाब था।"
और सैयद हुसैन शाह आज के उस इंकलाब का अलमबरदार बन गया है।

ईश्वर और अहलेबैत के नाम पर क़ुरबान होने वाले इस फिदाई को हमारा सलाम...!
एक बार फिर हुसैन ने जान दी, ताकि इंसानियत ज़िंदा रहे।

मासुमा मुस्तफा

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