बैत-ए-मरजईयत में एक ख़ामोश किरदार की कुर्बानियाँ, सब्र और गुमनाम महानता,इल्म और मरजईयत की बुलंदियों के पीछे वह हमसफ़र, जिसने अपने सब्र, ख़िदमत और गुमनामी से इस्लामी समाज को नई रोशनी बख़्शी



गुलज़ार जाफ़री

कुछ ऐसी शख्सियतें होती हैं जो बहुत बड़ी महानता और ऊँचाइयों के बीच रहकर भी गुमनाम रहती हैं। उन पर लिखना आसान नहीं होता, लेकिन जब लिखा जाता है तो उनके किरदार की छुपी हुई खूबसूरती और खुशबू सामने आ जाती है।

किसी व्यक्ति का इस्लामी समाज में बड़ा आलिम, मुज्तहिद और "मरजा-ए-तक़लीद" बनना सिर्फ़ उसकी मेहनत और इल्म का नतीजा नहीं होता, बल्कि उसके साथ-साथ उसकी बीवी (घर की ख़ातून) की क़ुर्बानियाँ और सब्र भी शामिल होता है। वह पत्नी जो अपने शौहर की राह में रुकावट नहीं बनती बल्कि कांटों को हटाकर रास्ता आसान करती है, इबादत, रियाज़त और इल्म के कामों में मदद करती है, वही असल में मरजईयत की इमारत की मज़बूत नींव होती है।

मरजा बनने का सफ़र आसान नहीं होता।
15 से 20 साल तक:

फ़िक़्ह के बारीक मसलों का गहरा अध्ययन,

क़ुरआन और हदीस से मसाइल निकालना,

पुराने उलेमा की राय का मुकाबला करना,

नए सवालों का हल निकालना,


ये सब करना पड़ता है। और साथ ही रूहानी ताक़त, तक़वा, इख़लास और लगातार इबादत ज़रूरी होती है। रात की तन्हाइयों में इबादत और दिन में मशक़्क़त—ये सब मिलकर एक इंसान को "फक़ीह-ए-वक़्त" बनाते हैं।

मरजईयत किसी परीक्षा का सर्टिफिकेट नहीं, बल्कि उम्मत (समाज) का एतबार और भरोसा है।
लोगों की क़ुबूलियत, उलेमा की गवाही और मुश्किल हालात में हल पेश करने की क्षमता ही असली मरजईयत है।

एक मरजा-ए-तक़लीद बनने के लिए इंसान को अपनी ख्वाहिशें क़ुर्बान करनी पड़ती हैं। इल्म को पूँजी और इबादत को सफ़र का सामान बनाना पड़ता है। कई दहाईयों की मेहनत, हज़ारों पन्नों की तहक़ीक़ और अनगिनत शागिर्दों की तरबियत के बाद इंसान इस ऊँचे मक़ाम तक पहुँचता है।

लेकिन इस सफ़र में जितनी बड़ी भूमिका खुद मरजा की होती है, उतनी ही अहम उसकी पत्नी की भी होती है। वह अपने आराम, ज़रूरतें और चाहतें छोड़कर शौहर की कामयाबी के लिए सब कुछ कुर्बान कर देती है।

माँ की हैसियत से भी उनकी भूमिका कम नहीं। वह अपने बच्चों की ऐसी परवरिश करती है कि वे अपने बाप के नक्श-ए-कदम पर चलें और इल्म और दीन के रास्ते पर आगे बढ़ें। शौहर की बुज़ुर्गी और कमज़ोरी के वक़्त भी उनकी पूरी सेवा करना, घर का माहौल जन्नत जैसा बनाए रखना, बच्चों की अच्छी तालीम और अख़लाक़ पर ध्यान देना—ये सब उनकी ज़िंदगी का हिस्सा रहा।

असल में मरजा-ए-तक़लीद की बीवी का किरदार वह ख़ामोश ताक़त है, जो सामने नहीं आती लेकिन पीछे से पूरा सहारा देती है। उनकी कुर्बानियाँ, सब्र, ख़िदमत और गुमनामी में बिताई गई ज़िंदगी ही वो रोशनी है जिसकी वजह से शौहर इल्म और मरजईयत की ऊँचाइयों तक पहुँचते हैं।

नजफ़ की पवित्र ज़मीन पर ऐसी बीवियों ने अपने बच्चों की भी बेहतरीन तरबियत की। यही वजह है कि उनके बेटे भी अपने बाप के साथ बड़े-बड़े दरस-ए-ख़ारिज (ऊँचे दर्ज़े की पढ़ाई) में हिस्सा लेने लगे और ज़माने के उलेमा उनकी इल्मी काबिलियत की गवाही देते रहे।

अल्लाह तआला से दुआ है कि मरहूमा के दर्जात बुलंद करे, उन्हें अपनी रहमत में जगह दे और उनके परिवार, ख़ासकर आयतुल्लाह अल-उज़मा सैयद अली सीस्तानी दाम ज़िल्लह और उनके बेटों को सब्र-ए-जमील और अज्र-ए-जज़ील अता करे।

आमीन या रब्ब-उल-आलमीन।

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