जब मौलाना सैयद सफी हैदर साहब क़िब्ला जैसे ज़हीन और वाकिफ़-ए-मज़हब उलमा किसी अहम मुद्दे की तरफ़ मूतवज्जेह करते हैं, तो जाहिर है कि वो मसला सिर्फ़ एक चर्चा नहीं, बल्कि उम्मत की फिक्र, तौहीद की हिफाज़त और तमीज़ व तहज़ीब की याददिहानी बन जाता है। हाल ही में आपने जिस “इमाम-ए-जामिन” के सिक्के पर अशोक की लाट (बुत) बनाए जाने की तरफ इशारा किया, वो वाकई एक ऐसा मामला है जिस पर सोचने की जरूरत है – गहराई से, ईमानदारी से और हिम्मत से।
“इमाम-ए-जामिन” का तबर्रुक या सिक्का, शिया मुस्लिम समाज में एक रिवायती अमल रहा है। ये सिक्का खासकर सफर या किसी खतरे के वक्त “अमान” और हिफाजत के लिए बांधा या रखा जाता है। इस नाम से मुराद हैं – हज़रत इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम – जो “जामिन-ए-अमान” कहलाते हैं, यानी अमानत और हिफाज़त की जिम्मेदारी उठाने वाले।
अब सोचिए, उस पवित्र नाम से जोड़कर अगर एक ऐसा सिक्का पेश किया जाए जिस पर अशोक स्तंभ (जिसमें तीन शेर और बौद्ध प्रतीक होते हैं), बना हो – तो ये सिर्फ डिज़ाइन की गलती नहीं, बल्कि मअनी और अक़ीदे की तौहीन के करीब हो सकता है।
अशोक स्तंभ भारत सरकार की राष्ट्रीय पहचान का प्रतीक है, ये बात सही है। यह संविधान, सरकारी कागजात, पासपोर्ट, और रूपयों पर भी होता है। लेकिन इस का असल मानी एक बौद्ध धार्मिक निशान है। अशोक सम्राट ने इस स्तंभ को भगवान बुद्ध की शिक्षाओं के प्रचार के लिए बनवाया था। इसमें धर्म चक्र, सिंह, और अशोक धर्म सूत्र जैसे प्रतीक होते हैं।
अब जब हम एक मज़हबी अमल के लिए बनाए गए सिक्के पर इसे डालते हैं – तो सवाल उठता है:
👉 क्या यह तौहीद की तर्ज़ पर सही है?
👉 क्या इमाम रज़ा अ.स. की निस्बत से जारी किसी तबर्रुक पर किसी गैर-इस्लामी प्रतीक का होना सही है?
*👉 क्या यह उलझन पैदा नहीं करता?*
*🕌 काश ये सिक्का इमाम रज़ा अ.स. के ज़माने का होता!*
काश ऐसा कोई सिक्का होता, जो वाकई इमाम अली रज़ा अ.स. के दौर का होता, जिसमें तौहीद, अमानत, इल्म और विलायत के निशान होते – जैसे पवित्र लफ़्ज़ “अल्लाह”, “रज़ा”, “वलायत”, या कुरआन की आयतें। लेकिन अफ़सोस, आज के दौर में जब धर्म के प्रतीकों पर बाज़ारी सोच हावी हो जाती है, तो शक्ल और डिज़ाइन, अक़ीदे पर भारी पड़ने लगते हैं।
*📜 मौलाना सैयद सफी हैदर साहब का हुस्न-ए-तवज्जोह*
ऐसे नाज़ुक और दिखने में मामूली लगने वाले लेकिन अक़ीदे से जुड़े मुद्दे की तरफ ध्यान दिलाना मौलाना सैयद सफी हैदर साहब का इखलास और इमानी जज़्बा दिखाता है। ये सिर्फ तन्कीद नहीं, बल्के एक “हिदायत” है – जो हमें बताती है कि हर अमल, हर चीज़ जो इमाम से मुनसूब हो, वो पाक और साफ होनी चाहिए – ना कि किसी गैर-मज़हबी प्रतीक के साथ मिली-जुली।
*🛑 क्या हो रहा है आज?*
आज जब धर्म और बाज़ार का घालमेल आम होता जा रहा है, ऐसे में इमामों के नाम से कुछ भी छाप देना एक आम बात बन गई है। लेकिन हमें सोचना होगा:
क्या हम सिर्फ नाम लेकर अपने तअल्लुक़ को पूरा समझ रहे हैं?
क्या किसी सिक्के पर *अशोक* की लाट बना देने से वो “इमाम-ए-जामिन” का तबर्रुक बन गया?
क्या इससे आने वाली नस्लों के दिमाग़ में दीन की तसव्वुरात कमजोर नहीं होंगी?
*✅ क्या किया जाए? – एक तजवीज़*
1. दीन और अक़ीदे से जुड़े तबर्रुकात पर सिर्फ़ इस्लामी और तौहीदी अलामत हों।
2. अशोक स्तंभ जैसे प्रतीकों से परहेज़ किया जाए, खासकर जब वो तबर्रुक का दर्जा रखते हों।
3. उलमा और हुज्जातुल इस्लाम इस पर खुलकर बयान दें, ताकि लोग समझें और सजग रहें।
4. इमाम रज़ा अ.स. के नाम पर एक सही तबर्रुक डिज़ाइन किया जाए जिसमें उनके फरामीन, दुआएं या कलिमा-ए-तौहीद हो।
जब बात इमाम की होती है, तो सिर्फ नाम नहीं, निस्बत, एहतिराम, और तहज़ीब की भी होती है। अशोक की लाट को मिटाने की नहीं, लेकिन उसके मुजाहिरे को उस जगह से हटाने की जरूरत है जहां तौहीद की पहचान होनी चाहिए।
जिंदाबाद वो आवाज़ें, जो हक़ और तहज़ीब की बात करती हैं।
जिंदाबाद रहबर ए हिंद हुज्जतुल इस्लाम मौलाना सैयद सफी हैदर साहब क़िब्ला!
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