इल्मी सफर: तालीम और तर्बियत की राह
मौलाना नईम अब्बास आब्दी ने अपनी ज़िंदगी को इस्लामी तालीमात के फ़रोग और अहलेबैत (अ.स.) की अजमत को उजागर करने के लिए वक़्फ़ कर दिया।
सन 1980 में मंगलौर जिला हरिद्वार,में मकतब अलमुल हुदा कायम किया फिर इसके बाद जामियातुल मुन्तज़र को कायम किया था।
जामितुल मुन्तज़र यूनिवर्सिटी के प्रधानाचार्य के तौर पर उन्होंने तलबा की रहनुमाई की, उन्हें दीन की गहरी समझ दी और उनके अंदर तदब्बुर (ग़ौर-ओ-फ़िक्र) का जज़्बा पैदा किया। वह अक्सर फरमाते थे—
"अगर इल्म तुम्हें हक़ और बातिल में तमीज़ ना सिखाए, तो वह इल्म नहीं, बल्कि गुमराही है।"
उन्होंने तालीमी मैदान में जो खिदमत अंजाम दी, वह हमेशा याद रखी जाएगी। उनके शागिर्द आज भी उनके दीए हुए इल्मी नुक्तों और तालीमात से रास्ता पा रहे हैं।
यौमे ग़म: एक यादगार तक़रीर
15 अप्रैल 2013 को करबला सिविल लाइंस, बाराबंकी में "यौमे ग़म" के प्रोग्राम का एहतेमाम किया गया, जिसे सैयद शुजात हुसैन रिज़वी नगरामी मेमोरियल अकादमी ने मुनक्किद किया। इस मौके पर मौलाना नईम अब्बास आब्दी ने जनाबे फातिमा ज़हरा (स.अ.) की अजमत और मसायब पर एक ऐसी तक़रीर की, जिसने हर सुनने वाले को रोने पर मजबूर कर दिया।
उन्होंने फरमाया—
"जनाबे फातिमा (स.अ.) का दर्द समझना हो, तो कर्बला की पहली इबारत को पढ़ो।"
जब उन्होंने रसूलुल्लाह (स.अ.) की इस हदीस को बयान किया—
"फ़ातिमा (स.अ.) मेरा हिस्सा हैं, जिसने उन्हें तकलीफ दी, उसने मुझे तकलीफ दी।"
तो मजलिस का माहौल ग़मगीन हो गया और अज़ादारों की सिसकियों से फज़ा भर गई। उन्होंने अहलेबैत (अ.स.) की अजमत को दलीलों और तारीख़ी हवालों के ज़रिए पेश किया और बताया कि हक़ का रास्ता हमेशा अहलेबैत (अ.स.) से होकर गुजरता है।
बाराबंकी में 48 घंटे: इल्म और हिदायत की सोहबत
मौलाना नईम अब्बास आब्दी जब बाराबंकी आए, तो उन्हें मेरे घर मेहमान बनने का शरफ हासिल हुआ। ये 48 घंटे मेरे लिए किसी नेमत से कम नहीं थे। इस दौरान उनकी गुफ्तगू से मैंने बेपनाह इल्म हासिल किया।
उन्होंने एक बात कही जो आज तक मेरे ज़ेहन में नक़्श है—
"अगर तुम्हें हक़ तक पहुँचना है, तो अपने नफ़्स को क़ाबू में रखना सीखो। क्योंकि नफ़्स ही इंसान को बहकाता है और यही उसे गुमराही के रास्ते पर डाल देता है।"
उन्होंने मजलिस और तक़रीरों में सिर्फ़ रोने का जज़्बा ही नहीं दिया, बल्कि सोचने और अमल करने की तौफ़ीक़ भी दी।
फैज़ाबाद में वसीका अरेबिक कॉलेज की तक़रीर
बाराबंकी से रुख़्सत होने के बाद मौलाना नईम अब्बास आब्दी ने फैज़ाबाद के वसीका अरेबिक कॉलेज में भी एक अहम प्रोग्राम में शिरकत की। वहां उन्होंने इस्लामी तालीमात के मौजू पर रोशनी डालते हुए कहा—
"अगर तुम्हें अपनी नस्लों को महफूज़ करना है, तो उन्हें जनाबे फातिमा (स.अ.) की तालीम से जोड़ दो।"
उनकी इस बात ने वहां मौजूद हर सुनने वाले के दिल पर असर छोड़ा और लोग उनकी बातों से रोशनी लेकर लौटे।
अंजुमन ए अब्बासिया और "अल-मुन्तज़र" से रिश्ता
1987 से मैं "नशरियात ए अंजुमन ए अब्बासिया" का एडिटर रहा हूँ और उस दौर में आगा का "अल-मुन्तज़र" नौगांवा सादात से निकलता था। जोगीपुरा में मेरा कैंप था, जो मौलाना साहब के कैंप के क़रीब हुआ करता था। इस तरह, उनकी सोहबत का सिलसिला जारी रहा और उनसे इल्मी फ़ायदा उठाने का मौक़ा मिलता रहा।
मौलाना नईम अब्बास आब्दी की याद और उनकी विरासत
मौलाना नईम अब्बास आब्दी सिर्फ़ एक आम ख़तीब नहीं थे, बल्कि हक़ की आवाज़ थे। उनकी तक़रीरें दिलों को झंझोड़ देती थीं और इंसान को हक़ और बातिल में तमीज़ करना सिखाती थीं। उनकी एक बात हमेशा मेरे ज़ेहन में रही—
"अगर तुम्हें सही रास्ता देखना है, तो सही रहबर को चुनो। क्योंकि गलत रहबर इंसान को तबाही की तरफ़ ले जाता है।"
आज भी उनकी बातें, उनके अल्फ़ाज़ और उनके इल्मी नग़मे हमारे दिलों में गूंजते हैं। वह सिर्फ़ एक आलिम नहीं, बल्कि हिदायत की एक रोशन मिसाल थे।
उनकी याद में बस यही कहना चाहूँगा—
"ऐसा आलिम-ए-दीन जिसने दीन को उलझाया नहीं, बल्कि सुलझाया। जिसने इल्म को सिर्फ़ किताबों तक महदूद नहीं किया, बल्कि उसे दिलों तक पहुँचाया। जिसने हक़ को सिर्फ़ बयान नहीं किया, बल्कि उसे अमल में लाकर दिखाया।"
सैयद रिज़वान मुस्तफा रिज़वी
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