ख़ुमार बाराबंकवी: करबला से मोहब्बत और अल्लाह से कुर्बत का सफर

सैयद रिज़वान मुस्तफ़ा,


ख़ुमार बाराबंकवी: करबला से मोहब्बत और अल्लाह से कुर्बत का सफर

"हक़ ओ बातिल में कहीं जंग अगर होती है,
कर्बला वालों पर दुनिया की नज़र होती है।"

करबला महज़ एक भूगोलिक जगह नहीं, बल्कि एक ऐसी रूहानी सच्चाई है, जहाँ से हक़, इंसाफ़, सब्र और इस्तिक़ामत का सबक़ मिलता है। करबला वो मंज़र है, जहाँ मोहब्बत कुर्बानी में बदल जाती है, जहाँ इंसानियत को नए मायने मिलते हैं। करबला सिर्फ़ 61 हिजरी की दास्तान नहीं, बल्कि हर दौर में एक नज़ीर है, हर ज़माने में एक पैग़ाम है।

और ख़ुमार बाराबंकवी उन ख़ुशनसीब अकीदतमंदों में से थे, जिनकी शायरी, जिनकी रूह, जिनका वजूद करबला से इस तरह वाबस्ता था कि उनकी आख़िरी मंज़िल भी करबला ही बनी।

ख़ुमार बाराबंकवी: करबला की अज़मत के शायर

ख़ुमार बाराबंकवी अपनी शायरी में सिर्फ़ इश्क़-ओ-मोहब्बत के ही शायर नहीं थे, बल्कि उनके कलाम में हुसैनी जज़्बा और करबला की अज़मत भी नुमायां थी। उनके अशआर जब पढ़े जाते हैं, तो दिल में एक अजीब सी कैफ़ियत तारी हो जाती है।

उन्होंने कहा था:

"राह-ए-हक़ में मरने वाले रोज़-ए-आशूरा ख़ुमार,
मौत से खेला किए और ज़िंदगी बढ़ती गई।"

यह शेर करबला की उस हक़ीक़त को बयान करता है, जहाँ मौत महज़ एक पड़ाव है और शहादत असल जिंदगी है। जहाँ सर कट जाते हैं, मगर सजदे नहीं टूटते, जहाँ जिस्म बिछ जाते हैं, मगर अक़ीदा ज़िंदा रहता है।

हुसैनियत: ख़ुमार बाराबंकवी की रूह का हिस्सा

ख़ुमार बाराबंकवी की शायरी सिर्फ़ लफ़्ज़ों की सजावट नहीं, बल्कि उनके दिल की सदा थी। उनका हुसैनियत से इश्क़ सिर्फ़ शायरी तक महदूद नहीं था, बल्कि उनके किरदार, उनकी ज़िंदगी और उनके आख़िरी सफ़र तक फैला हुआ था।

उन्होंने फ़रमाया:

"यूँ तो जीने को सभी जीते हैं दुनिया में मगर,
वाह रे वो जिनकी दरे-शह पे बसर होती है।"

यह शेर इमाम हुसैन (अ.) के उन साथियों के नाम एक अज़ीम ख़िराज है, जिन्होंने ज़ुल्म के सामने सर झुकाने के बजाय शहादत को गले लगा लिया।

ख़ुमार बाराबंकवी के कलाम में वही इरादा, वही हिम्मत, वही सब्र झलकता है। यही वजह थी कि करबला की ज़मीन ने उन्हें अपनी आग़ोश में लेने के लिए पुकारा।

20 फरवरी 1999: जब करबला ने उन्हें अपना लिया

20 फ़रवरी 1999 का दिन था। बाराबंकी का करबला सिविल लाइन्स में आँसुओं, के समंदर में डूबा हुआ था। हर लब पर एक ही सवाल था—क्या हुसैनी शायर को करबला की मिट्टी नसीब होगी?

और फिर, जब उनकी आख़िरी सफ़रगाह का फ़ैसला हुआ, तो ऐसा लगा जैसे करबला ने ख़ुद उन्हें अपनी आग़ोश में बुला लिया हो।

"ख़ुद को पाता हूँ बहुत आल-ए-मुहम्मद से क़रीब,
ज़िंदगी जब मेरी फ़ाक़ों में बसर होती है।"

यह उनका ही शेर था, मगर इस दिन यह एक हक़ीक़त बन चुका था। करबला ने उन्हें अपनी गोद में सुला लिया, जैसे वह बरसों से इसी इन्तज़ार में थी।

अल्लाह की कुर्बत और करबला की मुहब्बत

ख़ुमार बाराबंकवी सिर्फ़ हुसैनियत के शायर नहीं थे, बल्कि वह उन चंद अकीदतमंदों में से थे, जिनकी रूह अल्लाह की तरफ़ सफ़र करती थी।

उन्होंने कहा था:

"तस्वीर बनाता हूँ तस्वीर नहीं बनती,
यानी मेरे रब की तसवीर नहीं बनती।"

यानी अल्लाह की सच्ची मोहब्बत लफ़्ज़ों में क़ैद नहीं की जा सकती। जो इस राह पर चलता है, उसकी मंज़िल ख़ुद उसके आमाल तय कर देते हैं।

ख़ुमार बाराबंकवी की पूरी ज़िंदगी भी इसी इश्क़-ए-हक़ीक़ी की एक तहरीर थी। उन्होंने करबला को सिर्फ़ याद नहीं किया, बल्कि करबला की तरह जिए, और करबला की गोद में आराम पाया।

एक पैग़ाम, एक मिसाल

ख़ुमार बाराबंकवी की ज़िंदगी एक पैग़ाम थी—कि अगर कोई करबला से मोहब्बत करता है, तो करबला उसे अपने आँचल में जगह देती है।

आज भी जब उनकी शायरी पढ़ी जाती है, तो ऐसा महसूस होता है जैसे उनकी रूह वहीं करबला की सरज़मीन पर हुसैन (अ.) के क़दमों में सज्दा कर रही हो।

उन्होंने कहा था:

"हुसैन को क़त्ल करने वाले बहुत ही खुश थे ख़ुमार लेकिन
यजीदियत कब की मिट चुकी है, हुसैनियत आज भी जवा है।"

ख़ुमार बाराबंकवी चले गए, मगर उनकी शायरी, उनकी हुसैनी रुह और उनका पैग़ाम हमेशा ज़िंदा रहेगा।

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