ख़ाना-ए-काबा में नारा-ए-हैदरी: इमाम अली (अ.स.) की विलादत के यादगार पल

हर मुसलमान के दिल में ख़ुदा के घर का दीदार और उसकी ज़ियारत का ख्वाब होता है। यह ख्वाब जब हकीकत बनता है, तो रूहानी लम्हे और यादें उम्र भर के लिए साथ रह जाती हैं। मेरी ज़िंदगी का ऐसा ही एक खास वाकया 2015 में हज और फिर 2024 के उमरा के सफर में हुआ।

2015: पहली बार रुक्न-ए-यमनी का दीदार

2015 में जब मैं हज के लिए गया, तो उमरा की अदायगी के बाद मुझे रुक्न-ए-यमनी की ज़ियारत का मौका मिला। यह वही मुकाम है जहां जनाब-ए-फातिमा बिन्ते असद (अ.स.) ने काबा के अंदर दाखिल होकर इमाम अली (अ.स.) को जन्म दिया था। जब मैंने उस मुकाम को देखा, तो एक अजीब सा सुकून और मोहब्बत का एहसास मेरे दिल में जागा।

जैसे ही मेरी नजर उस पाक मुकाम पर पड़ी, मेरी जुबान से बेसाख्ता "नारा-ए-हैदरी" बुलंद हुआ। "या अली" की सदा जैसे वहां मौजूद हर शख्स के दिल तक पहुंच गई। हैरत की बात यह थी कि वहां मौजूद लोग अलग-अलग मुल्कों से और ज्यादातर सुन्नी समुदाय से थे। मगर वह भी इस मुकाम को देखकर उतने ही मुतास्सिर हुए, जितना मैं।

उनका उत्साह देखकर मुझे यकीन हुआ कि इमाम अली (अ.स.) की मोहब्बत सरहदों और फिरकों की बंदिशों से परे है। उस पल का जोश और रूहानी असर ऐसा था कि हर कोई इस मुकाम की बरकत पाने के लिए उत्सुक हो गया।

2024: काला पर्दा, मगर अकीदत कायम

2024 में जब मैं दुबारा उमरा के लिए गया, तो रुक्न-ए-यमनी पर काले कपड़े से परदा किया गया था। शायद इसे लोगों की निगाहों से छुपाने की कोशिश थी। यह देखकर दिल में थोड़ी मायूसी हुई, लेकिन मेरी अकीदत और मोहब्बत में कोई कमी नहीं आई।

उस मुकाम के करीब पहुंचकर मैंने फिर "नारा-ए-हैदरी" बुलंद किया। यह देखकर मेरी आंखें भर आईं कि वहां मौजूद लोगों ने भी "या अली" कहकर जवाब दिया। इस बार भी लोग अलग-अलग मुल्कों और फिरकों से थे। मगर उनकी अकीदत और उस पाक मुकाम के लिए मोहब्बत एक जैसी थी।

फरिश्तों की मौजूदगी का एहसास

उस लम्हे ने मुझे ऐसा एहसास दिया जैसे वहां सिर्फ इंसान नहीं, बल्कि फरिश्ते भी मौजूद थे। वह पाक मुकाम, जहां इमाम अली (अ.स.) की विलादत हुई, वहां न सिर्फ इंसानी आवाज़ें, बल्कि आसमान तक गूंजती मोहब्बत की सदाएं भी थीं।

रुक्न-ए-यमनी की अहमियत और इमाम अली (अ.स.) की विलादत

काबा का हर कोना पाक है, मगर रुक्न-ए-यमनी की अहमियत खास है। यह सिर्फ इमाम अली (अ.स.) की विलादत का मुकाम नहीं, बल्कि वह जगह है जहां से इस्लाम को अली (अ.स.) जैसा हिम्मती, बहादुर और इंसाफपसंद नेता मिला।

एक रूहानी तजुर्बे की यादें

यह वाकया मेरी जिंदगी के उन यादगार लम्हों में शामिल है, जिन्हें मैं कभी भुला नहीं सकता। रुक्न-ए-यमनी की ज़ियारत, "नारा-ए-हैदरी" की सदा, और लोगों का उत्साह इस बात का सबूत है कि मोहब्बत और अकीदत किसी मज़हबी या सांस्कृतिक हद में बंधी नहीं होती।

इस सफर ने मुझे यह भी सिखाया कि अकीदत का असर कितना गहरा हो सकता है। चाहे पर्दे हों या बंदिशें, मगर इमाम अली (अ.स.) के नाम की मोहब्बत हर दीवार को गिरा सकती है।

"नारा-ए-हैदरी: या अली!"
यह सिर्फ एक नारा नहीं, बल्कि मोहब्बत, जज़्बा और अकीदत का पैगाम है

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