भारत की सरज़मीं हमेशा से ज्ञान, बलिदान और इंसाफ की परंपराओं की गवाह रही है। इसी विरासत में एक नाम जो अपने इल्मी और शहादत के उजाले से हमेशा रौशन रहेगा, वह है शहीद-ए-सालिस काजी नुरुल्लाह शुस्तरी। आगरा की मुकद्दस ज़मीन पर मौजूद उनकी मजार न सिर्फ धार्मिक श्रद्धा का केंद्र है, बल्कि यह भारत की गंगा-जमुनी तहज़ीब और न्यायप्रियता की अमर निशानी भी है।
शहीद-ए-सालिस: इल्म और इंसाफ़ का चिराग़
काजी नुरुल्लाह शुस्तरी (1549-1610) मुग़ल बादशाह अकबर और जहांगीर के दौर के प्रसिद्ध न्यायविद, इस्लामी विद्वान और लेखक थे। वे न्याय और हक़ के ऐसे सिपाही थे जिन्होंने सच के रास्ते को नहीं छोड़ा, चाहे इसकी कितनी भी बड़ी क़ीमत क्यों न चुकानी पड़ी। जहांगीर के शासनकाल में, उनके शिया मत और न्यायिक फैसलों के कारण उन्हें शहीद कर दिया गया। इसी वजह से उन्हें "शहीद-ए-सालिस" यानी "तीसरे शहीद" के तौर पर जाना जाता है।
मजार-ए-मुबारक पर हाज़िरी: एक रूहानी एहसास
जब मुझे आगरा में मजार-ए-शहीद-ए-सालिस पर हाज़िरी और सलामी देने का मौका मिला, तो वह लम्हा सिर्फ एक दौरा नहीं बल्कि एक आध्यात्मिक यात्रा थी। उनकी मजार पर पहुंचते ही दिल एक अजीब तरह की सुकून और रूहानी ताक़त महसूस करता है। सफेद संगमरमर से बनी इस मजार की सादगी और गरिमा इसकी पवित्रता को बयां करती है।
हज़ारों अकीदतमंदों की तरह मैंने भी उनके मजार पर सलामी दी, फातिहा पढ़ी और इस महान शहीद के मक़ाम पर ताज़ीम पेश की। वहां मौजूद लोगों की आँखों में अकीदत के आँसू थे, और हर एक के दिल में शहीद-ए-सालिस की अदम्य हिम्मत और ईमानदारी के लिए इज़्ज़त थी।
शहीद-ए-सालिस की शिक्षाएं और आज का दौर
आज जब दुनिया नाइंसाफी, फिरक़ापरस्ती और सियासी चालबाज़ियों से घिरी हुई है, तो शहीद-ए-सालिस की ज़िंदगी और उनके इंसाफ़ के लिए दिए गए बलिदान से हमें बहुत कुछ सीखने की ज़रूरत है। उन्होंने हमें सिखाया कि हक़ के रास्ते पर चलना आसान नहीं होता, लेकिन जो इस राह को चुनते हैं, इतिहास उनका नाम हमेशा इज्ज़त से याद करता है।
ख़ुलासा
मजार-ए-शहीद-ए-सालिस पर सलामी देना सिर्फ एक धार्मिक कर्तव्य नहीं, बल्कि एक ऐतिहासिक और सामाजिक जिम्मेदारी का एहसास भी है। यह हमें याद दिलाता है कि न्याय, सच्चाई और इंसानियत की राह पर चलने वाले कभी मरते नहीं—वे अमर रहते हैं, और उनकी शिक्षाएं पीढ़ी दर पीढ़ी इंसानियत को राह दिखाती रहती हैं।
शहीद-ए-सालिस की मजार सिर्फ पत्थरों की एक इमारत नहीं, बल्कि यह एक ऐसी रौशनी है, जो हर दौर में हक़ और इंसाफ़ का सबक़ देती रहेगी।
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